लगता है बंजारा मन डॉ भूपेन्द्र कुमार

हिन्दी गीत
खुद भटके संग संग भटकाता
चंचल पल को ठहर न पाता
लगता है बंजारा मन
आहट बिन पदचिह्न के छोड़े
गति असीमित चहुँदिश दौड़े
घुमे है जग सारा मन … लगता है बंजारा मन
न कोई सीमा न कुछ बंधन
कभी न रूकता रोके से मन
उधर चले ये जहां चाह है
मतवाले की वहीं राह है
गैरों से कब खुद ही खुद से
जीत जीतके हारा मन … लगता है बंजारा मन
बाट जोहे आकंठ उदासी
कितनी भूखी कब से प्यासी
आड़ी – तिरछी ठहरी नेह से
पलको पलकों में दृग देह से
सहज सरल उस परछाई से
जब सहमा बेचारा मन … लगता है बंजारा मन
अपनी धुन में हो आनंदित
चिंतन चिंतित या मर्यादित
विनम्र विचार बड़े या छोटे
अंतस् बोल अधर से लौटे
बात नहीं जब सुनता कोई
रहता मारा मारा मन … लगता है बंजारा मन
कोई अनाड़ी निर्मोही बन
ओझल होता है निष्ठुर तन
हार थकन या ख़ामोशी से
विवश मौन हो मदहोशी से
बदली में जा चाँद छुपा तो
चमका बनके तारा मन … लगता है बंजारा मन
पिछली बातों संवादों को
क़समें वादे और यादों को
तार तार आरोह अवरोह में
गीत मिलन के गूँथ विछोह में
बैठ अकेले अमराई में
गाता ले इकतारा मन … लगता है बंजारा मन