मैं मजदूर हूं
अलख सुबह निकल पड़ता हूं,
मैं हाथ में लिए एक झोला।
उसमें होती हैं कुछ सूखी रोटियां,
और होता है आलू नमक का घोला ।
आस में खड़ा होता हूं काम के,
मजदूरों वाले चौराहे पर शहर के।
तलाश में आते हैं जहां पर लोग,
मोटर कारों पर सज संवर के।
होती हैं कुछ मोल-भाव की बातें,
लेने देने वाली मजदूरी की।
कुछ लोग मान जाते एक बार में,
कुछ फायदा उठाते मजबूरी की।
दिन भर करता हूं जी तोड़ श्रम,
बहाता हूं सिर से पैर तक पसीना।
फिर शाम को मिलते हैं चार पैसे,
खुश हो जाता हूं जैसे मिला नगीना।
न कभी छुट्टी, न कभी त्यौहार,
बस रोज चलता यही व्यवहार।
चाहे हो सिर दर्द या जकड़न,
पेट की आग से जाता हूं हार।
बच्चों की भूख प्यास के आगे,
अपनी भूख को जाता हूं भूल।
लड़ता हूं रोज मैं स्वयं से,
हटाने आर्थिक विषमता की धूल।
बस जीवन का यही रोज क्रम हैं,
हमारा ईश्वर, हमारा श्रम है।
कहते हैं बदलते हैं हालात,
लगता है यह केवल एक भ्रम है।
– हरी राम यादव
7087815074

देश के मजबूर किसान
दम है तो आओ लो मैदान बुहार
लड़ना ही है तो लड़ो मित्रों
तेरा हुआ हमें अहसास का ये सुख सभी ने पाया