इन हैवान और दरिंदो में
जीवित “ममता” नहीं,
जो “ममता” हैं,
उसमें कोई क्षमता नहीं.
गर होती तो वे
नेस्तनाबूत हो जाते.
होता क़ानून का राज,
तो हौसले पस्त हो जाते.
न होता शील भंग,
न जाती किसी की जान.
यू सहज ही नहीं उड़ जाते,
किसी बहन-बेटी के प्राण.
हे भस्मासूरों तुम्हें है,
कितनी “तन” की भूख
नज़र ही नहीं आता दुःख.
क्या? अब मिला पाओगे,
अपनी माँ-बहन से निगाहें,
झुकेंगी नज़र गाहे-बगाहे.
काश, जागी होती “ममता”
सारा देश नतमस्तक हो,
सम्मान में नमन करता.
संजय एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)
98260-25986