अकेलेपन कों दूर भगाओ — डाक्टर नीरज भारद्वाज
व्यक्ति देश-दुनिया कहीं का भी हो वह एक सामाजिक प्राणी है, समाज के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है। व्यक्ति से परिवार, संयुक्त परिवार, पड़ोस, समाज, गांव, देश और दुनिया बनती है। सही मायनों यह सभी एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के सहयोगी हैं, यही जीवन का सूत्र है। व्यक्ति समाज की सबसे बड़ी शक्ति है। नर-नारी का सहयोग और सहचरवास इस सृष्टि का उद्धार करता है। दोनों प्रणय सूत्र में बंधकर परिवार, समाज और विश्व का कल्याण करते हैं। दोनों ही सेवा भाव के साथ चलते हैं और धीरे-धीरे अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हैं, कहीं कोई बाधा नहीं।
भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की व्यवस्था रही है। लेकिन आधुनिकीकरण, अतिआधुनिकीकरण और विदेशी प्रभाव के चलते संयुक्त परिवार तेजी से टूट रहे हैं। नगरीय और महानगरीय जीवन में एकल परिवार की संकल्पना का विकास बहुत तेजी से हुआ है। यह एकल परिवार व्यवस्था, व्यक्ति की युवावस्था तक तो ठीक लगती है। जैसे ही उसके बच्चे जवान होते हैं, फिर इन परिवारों की आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्यपरक सभी व्यवस्थाएं बिगड़ने लगती हैं। अब साथ रहने की नहीं अलग होने की बारी आती है। जिस व्यक्ति ने स्वयं एकल परिवार की संरचना को अपनाया है तो उसकी आने वाली पीढ़ी ने इस परंपरा का एक हिस्सा ही गायब कर दिया है, अब वह एकल व्यक्ति तक ही सीमित होकर रह गए हैं। यह बात सभी पर लागू नहीं होती लेकिन हो ऐसा ही रहा है।
एकल परिवार के व्यक्ति अकेला रहना चाहते हैं। अपनी स्वतंत्रता, मस्ती, जीवन-जवानी जीने का अलग ही रास्ता, लेकिन बाद में अर्थात समय के एक मोड़ पर यही अकेलापन, एकांतवास, व्यक्ति को अंदर से तोड़ देता है। व्यक्ति पीछे मुड़कर देखा है तो उसे दिखाई भी नहीं देता है कि मैंने कितनों को पीछे छोड़ा, कितने रिस्तों को तोड़ा और यहां तक पहुंच गया। अब स्थिति यह है कि आप अकेले रह गए हैं। समाज को आपने सहयोग दिया होता, समाज के लिए आप जुड़े और जिए होते तो आज लोग आपके लिए खड़े होकर, आपके लिए जीने-मरने को तैयार होते। जब आपने अकेलापन चुना तो आप अकेले ही रहिए। अपनी मनोस्थिति से लड़ाई लड़िए, यही मनोस्थिति उसे अंदर से खाए जा रही है।
व्यक्ति सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ने, आगे बढ़ने के चक्कर में लगा रहता है। सही मायनों में समय चक्र जब घूमता या चलता है तो जो चीज ऊपर है वह एक दिन नीचे जरूर आएगी, हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए। बालपन, यौवन और फिर बुढ़ापा यह सभी शारीरिक अवस्थाएं हैं। फिर आप अपने यौवन में जो सामाजिक दायित्वबोध तोड़ते हो, बुढ़ापे में आपके साथ कौन खड़ा होगा।
आज व्यक्ति को अकेलापन इतनी तेजी से खा रहा है कि वह किसी से अपने हृदय की बात भी नहीं कर पा रहा है। जिससे करनी थी, उन्हें गांव, देहात, दूर बस्ती में छोड़ दिया है। अब किलोमीटर की दूरी, हृदय की दूरियों में बढ़ गई है। अपने स्वास्थ्य को समझना चाहिए, लोगों से मिलना चाहिए। अपने परिवार, समाज, राष्ट्र, दुनिया सभी की बातें होनी चाहिए। मिलने-मिलाने का दौर हमेशा जारी रखना चाहिए। एक दूसरे के सहयोग में खुलकर आगे आना चाहिए और खुलकर बात करनी चाहिए। भगवान की रचना में अपने विचार मत फसाओ। घुटन से बाहर निकालो, सबसे बात करो। विचार बांटने से मन मस्तिष्क हल्का होता है। हमेशा खुश रहना सीखो, आप भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखें। तन का मेल नहीं, मन का मेल हटाओ। खूबसूरत बाहर से नहीं अंदर से बनो। आपकी खुशबू समाज को सुगंधित करेगी, सुंदर विचारों के साथ बात कीजिए और आगे बढ़ें।

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