1971 के युद्ध का विजय दिवस
सन् 1971 के दिसंबर के महीने में देश पर पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों का दबाव बढ़ता जा रहा था। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, मेघालय और त्रिपुरा में आये लगभग 10 लाख शरणार्थियों के कारण कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होती जा रही थी। इससे दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध खराब होने लगे थे। पाकिस्तान इसे अपने देश का आंतरिक मामला बताकर पल्ला झाड़ रहा था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा था उसको पाकिस्तान का अंदरूनी मामला मानने से इंकार कर दिया था क्योंकि देश शरणार्थियों के रूप में इसका परिणाम भुगत रहा था। उस समय अमेरिका पाकिस्तान की तरफ आंखें बंद किए हुए उसको मूक समर्थन दे रहा था। इसे देखते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने 09 अगस्त 1971 को तत्कालीन सोवियत संघ के साथ एक समझौता किया जिसमें दोनों देशों ने एक दूसरे की सुरक्षा का भरोसा दिया था।
सन् 1970 में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए थे। इस चुनाव में आवामी लीग को बहुमत मिला था। आवामी लीग ने बहुमत के आधार पर सरकार बनाने का दावा किया परन्तु पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो इससे सहमत नहीं थे, उन्होंने इस चुनाव का विरोध करना शुरू कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान की जनता चुनाव में मिले बहुमत के बावजूद सत्ता हस्तांतरित न होने पर, विरोध में सड़कों पर उतर चुकी थी, जगह जगह पाकिस्तान सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन शुरु हो गया था । उभरते हुए जन आक्रोश को कुचलने के लिए सरकार ने सेना को खुली छूट दे दी । पाकिस्तान ने आम जनता पर कहर बरपाना शुरू कर दिया । अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया। । अपने नेता की गिरफ्तारी से जनता और भड़क उठी। जगह- जगह जनता ने तत्कालीन पाकिस्तान सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में हालात खराब होते जा रहे थे । ईस्ट बंगाल रेजिमेंट, ईस्ट पाकिस्तान राइफल्स, पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों के बंगाली जवानों ने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ बगावत करके खुद को आजाद घोषित कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पाकिस्तान से पलायन करना शुरू कर दिया। इसी समय मुक्तिवाहिनी अस्तित्व में आयी।
उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी। पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को शरण देने से पाकिस्तान ने भारत पर हमले करने की धमकियां देना शुरू कर दिया था। इस समस्या के समाधान के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिश करनी शुरू कर दीं ताकि युद्ध जैसे हालात को टाला जा सके। पाकिस्तान की मंशा को भांपते हुए सैन्य नेतृत्व ने सेना को किसी भी हालत से निपटने के लिए एकदम तैयार रहने के लिए निर्देशित कर दिया।
03 दिसंबर को 1971 को शाम 05 बजकर 40 मिनट पर पाकिस्तानी वायु सेना ने भारतीय वायुसेना के 11 वायुसेना अड्डों – श्रीनगर, अमृतसर, पठानकोट, हलवारा, अम्बाला, फरीदकोट आगरा, जोधपुर, जामनगर, सिरसा पर हमला कर दिया। उस समय श्रीमती गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं। वहां से तुरंत लौटकर उन्होंने एक आपातकालीन बैठक बुलाई और रात को ही ऑल इंडिया रेडियो से देश की जनता को संबोधित किया और हवाई हमलों के बारे में बताया । सरकार ने 04 दिसंबर, 1971 को युद्ध की घोषणा कर दी और सेना को ढाका की तरफ कूच करने का आदेश दे दिया ।
भारतीय वायुसेना ने पश्चिमी पाकिस्तान के आयुध भंडारों और वायु सेना के अड्डों पर बम बरसाने शुरू कर दिया। भारतीय नौसेना के जांबाज नौसैनिकों ने बंगाल की खाड़ी की तरफ से पाकिस्तानी नौसेना को टक्कर देना शुरू कर दिया। भारतीय नौसेना ने 05 दिसंबर 1971 को कराची बंदरगाह पर स्थित पाकिस्तानी नौसेना के हेडक्वार्टर को नेस्तनाबूद कर दिया। हमारे नौसैनिकों ने पाकिस्तान की गाजी, खैबर, मुहाफिज जैसे युद्ध पोतों को बर्बाद कर दिया। इधर भारतीय वायुसेना के हंटर और मिग 21 फाइटर जहाजों ने राजस्थान के लोंगेवाला में एक पूरी आर्म्ड रेजिमेंट को खत्म कर दिया। इसके साथ ही साथ भारतीय वायुसेना ने पश्चिमी पाकिस्तान में दुश्मन के रेल और संचार को भी पूरी तरह बर्बाद कर दिया। इसके बाद दुश्मन के हमले पर विराम लग गया।
भारतीय सेना के जांबाज सिपाही पाकिस्तानी सेना को रौंदते हुए उसके 13,000 वर्ग मील पर कब्जा जमा लिया। इस युद्ध में सेना वायु रक्षा कोर (तब आर्टिलरी) ने भारतीय वायुसेना के साथ मिलकर बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सेना वायु रक्षा कोर की एल सेवेंटी तोपें पाकिस्तान के युद्धक विमानों की काल बन गई । इस कोर ने महत्त्वपूर्ण पुलों, आयुध डिपो, हवाई अड्डो आदि की हवाई हमलों से सुरक्षा कर पैदल सेना को आगे बढ़ने में अपनी अभूतपूर्व भूमिका निभाई। भारतीय सेना के नेतृत्व कौशल और सामरिक दक्षता के कारण पाकिस्तानी सेना की एक न चली। भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान की कमर तोड़ दी। पाक सेना का नेतृत्व कर रहे लेफ्टिनेंट जनरल ए के नियाजी ने अपने 93 हजार युद्ध बंदियों के साथ भारतीय सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और अपनी हार स्वीकार कर ली। 13 दिनों तक चले युद्ध के पश्चात् बांग्लादेश अस्तित्व में आया।
हमारे देश में पाकिस्तान पर इस अभूतपूर्व विजय के उपलक्ष्य में 16 दिसंबर ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस युद्ध में पाकिस्तान को काफी जन-धन की हानि हुई। इस युद्ध में पाकिस्तान के लगभग 8,000 सैनिक मारे गये एवं 25,000 घायल हुए थे। यह युद्ध कई मायनों में अभूतपूर्व था। विश्व के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। यह युद्ध अब तक लड़े गये निर्णायक युद्धों में सबसे कम दिन में जीता गया युद्ध था। इस युद्ध में हमारी सेना के 54 सैनिक युद्ध बंदी बनाये गए, जिन्हें मिसिंग 54 के नाम से जाना जाता है । विजय दिवस के शोर में हमने अपने इन बहादुर यौद्धाओं के परिजनों के दर्द को भुला दिया। हमें इनके दर्द का एहसास भी नहीं है । हम लोग बस हर साल खूब शोर शराबे में विजय दिवस मनाते हैं और गौरव गान करते हैं क्योंकि यह हमारे अपने घर के नहीं हैं। सरकार ने अब तक इस दिशा में जो भी प्रयास किए हैं वह नाकाफी हैं क्योंकि 54 साल बीत जाने के बाद भी यह आज भी मिसिंग 54 की सूची में ही हैं । इनके परिवार आज भी प्रतीक्षा में हैं कि शायद कोई चमत्कार हो जाए और इनका लाडला आ जाए।
इस युद्ध में देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साहस, पहल, दूरदर्शिता, कूटनीति और निर्णय लेने की क्षमता ने विश्व के भूगोल और पाकिस्तान के इतिहास को बदल दिया। इस युद्ध को आखिरी अंजाम तक पहुंचाने में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही। उनकी सूझबूझ, युद्ध कौशल के सामने पाकिस्तानी सेना को मुंह की खानी पड़ी। यह युद्ध भारतीय सेना के अदम्य साहस, सूझबूझ और युद्ध कौशल के लिए विश्व के इतिहास में दर्ज हो गया।
– हरी राम यादव
7087815074

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