यथार्थ के धरातल पर कुत्ता और मनुष्य
पाषाण काल से ही कुत्ता मनुष्य का सबसे नजदीकी, विश्वस्त, वफादार और संतोषी प्राणी रहा है। यह मनुष्य का सानिध्य ज्यादा पसंद करता है। संतोषी इतना कि यदि किसी से इसकी तुलना की जाय तो इसकी तौहीन होगी। कुत्ते को रोटी का एक टुकड़ा मिल जाने या न मिल जाने पर भी पूरा दिन गुजार देता है और वफादारी में इसकी कोई मिसाल नहीं है। जरूरत पड़ने पर एक रोटी के टुकड़े के कर्ज को चुकाने में अपने फर्ज को पूरा करते हुए प्राण उत्सर्ग कर देने में नहीं चूकता। किसी वस्तु या स्थान की पहचान करने में यह सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। यहॉ तक कि अपने को सर्वश्रेष्ठ कहने वाला मनुष्य भी इसकी बराबरी नहीं कर सकता। कुत्ते की नाक में 22.5 करोड़़ ग्राही कोशिकाएं होती है और मनुष्य की नाक में 50 लाख कोशिकाएं ही होती हैं। इसीलिए किसी वस्तु को सूंघकर उसकी पहचान करने में यह सभी प्राणियों से 40 गुना ज्यादा तेज होताा है। अपनी घ्राण शक्ति के बल पर ही यह सुरक्षा एजेंसियों का चहेता बना हुआ है। सोते समय जल्दी उठने में तो धर्मग्रन्थों में भी इसकी बड़ाई की गयी है। आपने विद्यार्थी के लक्षणों के बारे में पढ़ा या सुना होगा कि विद्यार्थी को सोने में कुत्ते की तरह होना चाहिए :-
काक चेष्टा बको ध्यानम्, श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।
कुत्ता आहट पाते ही उठ खड़ा होता है और तुरन्त अपने पराये की पहचान कर लेता है। आज भी ऐसे मनुष्य हैं जो कि सोने में कुम्भकर्ण को मात दे सकते है, यानी कि जल्दी उठने या चैतन्य होकर सोने में कुत्ता मनुष्य से श्रेष्ठ है।
कुत्तों में भी कई श्रेणियॉ हैं, कोई कुत्ता दूध पीता है, मखमली चादर पर वातानुकूलित कमरे में सोता है, मोटरकार में सैर करता है। तो कोई बेचारा भूख से बेहाल शीत, धूप सहते हुए, डण्डे की मार की पीड़ा झेलते हुए, पेड़ की छांव में जीवन गुजार देता है। वह मनुष्य जो कि रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकता, डण्डे के प्रहार से बेचारे की कमर तोड़ देता है और घिसट घिसट कर चलने के लिए छोड़ देता है।
कुत्ता भी अन्य प्राणियों की तरह हाड मांस का बना होता है। क्या कभी हमने यह सोचने की कोशिश किया है कि बेचारा कभी बीमार हो सकता है, कभी उसको भी दर्द हो सकता है। जब हमें दर्द होता है तो हम हाय तौबा मचा देते हैं । कभी कभी वह बेचारा भी दर्द से परेशान होकर रोता है। तो हम कहते हैं कि कुछ अशुभ होने वाला है, कुत्ता रो रहा है। हम उसके ऊपर ईंट पत्थर लेकर पिल पड़ते हैं। क्या यही एक बुध्दिजीवी प्राणी का काम है कि बिना किसी समस्या को जाने, उसका समाधान ढूढ़ने लग जायें। हाय रे मनुष्य ! बेचारे का रोना भी नहीं देखा जाता।
कभी कभी कुत्तों की बढ़ती हुई जनसंख्या पर चिन्ता व्यक्त की जाती है। कभी कोई समाजसेवी संस्था तो कभी सरकारी संस्था के कर्मचारी कुत्तों को पकड़कर उनकी जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए नसबंदी अभियान चलाते हैं। क्या यही है हमारा श्रेष्ठपन। हम अपने बारे में नहीं सोच रहे हैं और अपनी जनसंख्या को इस कदर बढ़ा रहे हैं कि शायद अगले दस सालों में खेती करने के लिए जमीन की बात तो छोड़िए, रहने के लिए धरती भी कम पड़ जायेगी। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गॉधी ने जनसंख्या नियन्त्रण के लिए “हम दो, हमारे दो” के नारे को बुलन्द किया तो हमने उन्हें संसद से बाहर का रास्ता दिखा दिया। आखिर यह दोहरी मानसिकता क्यों? क्या आज के इस सभ्य समाज में एक एक आदमी के सात- सात, आठ-आठ संतानें नहीं हैं? साधारण आदमी की तो बात ही छोड़िये हमारे कई माननीय भी ऐसे है जिनके पास लगभग क्रिकेट टीम है। क्या हमने या उन्होंने कभी इस बारे में सोचा ?
आपने यह देखा होगा कि यदि कुत्ता पागल हो जाता है तो हम उसे गोली मारने के लिए कहते हैं। क्या आदमी पागल नहीं होता उसे क्यों नहीं गोली मार दी जाती? कुत्ता पागल होने पर भी अपने मालिक को कम से कम नहीं काटता और एक हम हैं कि पूरे होशो हवास में चन्द कागज के टुकड़ों के लिए अपने मालिक की गोली मारकर या गला काटकर हत्या कर देते हैं। मनुष्य तो कुत्ते से भी गया गुजरा हुआ है।
फिल्म जगत की कई फिल्मों में भी कुत्ते की अपने मालिक के प्रति अपूर्व स्वामिभक्ति और वफादारी दिखायी गयी है। यह बात केवल फिल्मी ही नहीं है, यह वास्तविकता में भी है। क्या मनुष्य में है यह जज्बा? बिरले मनुष्य ही होगें जो इस तरह का काम कर सकते हैं। जब तक अपनी जान पर नहीं बन आती तब तक ही मनुष्य अपने मालिक की रक्षा करता है लेकिन जब अपनी जान पर बन आती है तब मालिक को छोड़कर, दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।
कुत्तों की खरीद फरोख्त की बात को ही लें तो आपने कई ऐसे समाचार पढ़े होगें कि माता पिता ने गरीबी और भुखमरी से तंग आकर अपने बच्चे को महज 500 रूपयों में बेंच दिया। क्या यही इंसानियत है? क्या कुत्ता ऐसा करता है ? क्या आप ने कुत्ते के बच्चे को खरीदने की कोशिश की है, एक एक बच्चा 10-10 हजार रूपये में बिकता है। जिसे हम कुत्ता कहते हैं वह दिन भर भूखा रहता है फिर भी अपने बच्चे को प्यार करना नहीं छोड़ता। कभी सड़क दुर्घटना में उसके बच्चे की मौत हो जाने पर वह उसके आसपास दुखी होकर घूमता है, रोता है। लेकिन हम किसी मनुष्य की दुर्घटना में घायल हो जाने पर देखने के लिए रूकते तक नहीं हैं। घायल व्यक्ति सड़क पर पड़ा मदद मॉंगता रहता है और हम सरपट भागते जाते हैं।
आखिर कहॉ जायें बेचारे कुत्ते, हमने उनके नाम तक अपना लिए है। वॉबी, टॉमी, जैकी जैसे नाम हम अपने बच्चों को देने लगे हैं। आखिर हमने उनके लिए क्या छोड़ा है ? क्या यही मनुष्यता है कि हमें दूसरों की जो चीज अच्छी लगे उसे बिना पूछे जबरदस्ती हथिया लें ? मनुष्य तो कुत्ते से भी बड़ा चोर और सीनाजोर है। वे तो बेचारे अपनी भूख को मिटाने के लिए घरों में चोरी करते हैं। मनुष्य तो मोबाइल फोन खरीदने , होटलों में ऐश करने तथा मॅहगी कार खरीदने के लिए चोरी करता है।
काश! कुत्तों का भी अपना एक संगठन होता, कोई कुत्ताधिकार आयोग होता, उनका कोई हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट होता। जहॉं वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए जनहित याचिका दायर करते। उनका अपना कोई नेता होता जो उनकी समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए जंतर मंतर पर धरना, प्रदर्शन और भूख हड़ताल करवाता, संसद तक उनकी आवाज पहुंचाता तो शायद कुत्ते को कुत्ता कहने वालों के खिलाफ कानून बनता। बेचारों को न्याय मिल पाता और वे बेचारे उलाहना देकर कहते कि “हे दम्भी, झूठा, फरेबी, चाटुकार मनुष्य! तुम मेरे सामने कहॉ खड़ा हो पायेगा, तुम तो बिकाऊ है, वफादारी के नाम पर धब्बा है। तुम तो मुझे कुत्ता कहता है। तुम तो मुझसे भी बड़ा कुत्ता है क्योंकि तुम बिक कर भी अपने मालिक के प्रति वफादार नहीं रहता। यदि कहीं और ज्यादा मूल्य मिला तो तुम अपने मालिक के साथ गद्दारी करने से बाज नहीं आता है”।
मनुष्य को वह सरेआम कहते, तुम मुझे आवारा कहता हो, तुम्हें मुझे आवारा कहने में शर्म आनी चाहिए। क्योंकि हमारे पास तो कोई अपना घर नहीं है तो मैं आवारा कैसे हुआ? तुम्हारे पास तो घर भी है तब भी तुम सड़कों, रेलवे स्टेशनों, सरायों में आवारा घूमते रहते हो और धनपतियों की कारों के नीचे खुली सड़कों पर रौंदे जाते हो और तुम्हारी जाति बिरादरी वाले तुम्हें तड़पता हुआ देखकर भी पास से चले जाते हैं लेकिन हमारी जाति बिरादरी वालों के बस में तो कुछ भी नहीं हैं फिर भी पास में खड़े होकर रो तो लेते हैं।
– हरी राम यादव
स्वतंत्र लेखक
7087815074

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