बिहार चुनाव 2025: जनमत की नई परिभाषा और पहले चरण की निर्णायक भूमिका डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)
बिहार एक बार फिर लोकतन्त्र के सबसे बड़े पर्व की ओर बढ़ रहा है। 6 नवम्बर को यहाँ पहले चरण का मतदान होना है| जिसमें 121 विधानसभा क्षेत्रों के मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनेंगे| इसलिए राज्य की सियासत में हलचल तेज़ होना स्वाभाविक है। यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन की कवायद नहीं, बल्कि सामाजिक सन्तुलन, जनमत की दिशा और राजनीतिक पुनर्संरचना का संकेत भी है। इस बार का चुनाव कई स्तरों पर निर्णायक बनता दिख रहा है| जातीय समीकरणों की पुनर्व्याख्या, महिला मतदाताओं की चुपचाप लेकिन प्रभावशाली भागीदारी और मौसम की बाधाओं के बीच प्रचार की नयी शैली ने इसे एक जटिल लेकिन रोचक परिदृश्य बना दिया है।
बिहार की राजनीति में जाति की भूमिका सदैव निर्णायक रही है| लेकिन इस बार टकराव की प्रकृति कुछ बदली हुई दिखाई दे रही है। भूमिहार बनाम भूमिहार जैसी स्थितियाँ आन्तरिक विभाजन को उजागर करती हैं| वहीं सवर्ण और पिछड़ा वर्ग के बीच की खाई को पाटने की कोशिशें राजनीतिक दलों की रणनीति में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही हैं। हालाकि मोकामा, मटिहानी, जहानाबाद, गोपालगंज, सीवान और बक्सर जैसी सीटों पर जातीय ध्रुवीकरण की स्थिति बनी हुई है। यादव, कुर्मी, दलित और मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए सभी दलों ने रणनीतिक उम्मीदवार उतारे हैं। AIMIM अर्थात ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और राष्ट्रीय जनता दल मुस्लिम वोटों को लेकर आमने-सामने हैं| जबकि भाजपा ने अति पिछड़े वर्गों को साधने की कोशिश की है। यह जातीय टकराव केवल चुनावी गणित नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना की गहराई को भी दर्शाता है।
महिला मतदाता इस चुनाव में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभरी हैं। बिहार में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 7.43 करोड़ है, जिसमें महिला वोटर लगभग 47% हैं। यह आंकड़ा केवल संख्या नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रभाव का संकेत है। रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर उनकी चुपचाप भागीदारी ने राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति पुनर्गठित करने पर मजबूर किया है। नीतीश कुमार की सभाओं में महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही है, जबकि अन्य दलों को इस वर्ग में पकड़ मजबूत करना बाकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिला वोटर का रुझान विकास और स्थायित्व की ओर झुका हुआ है, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है। महिला मतदाता अब केवल भावनात्मक अपील से नहीं, बल्कि ठोस योजनाओं और नीतियों के आधार पर निर्णय ले रही हैं। जिसके कारण ही राजनीतिक दलों को अपनी चुनावी रणनीति बदलने विचार करना पड़ा|
मौसम भी इस बार चुनाव प्रचार में एक अहम कारक बनकर सामने आया है। पश्चिमी विक्षोभ के कारण कई सभाएं रद्द करनी पड़ीं| जिससे नेताओं को डिजिटल माध्यमों का सहारा लेना पड़ा। अमित शाह की तीन सभाएं मौसम के कारण स्थगित हुईं, जबकि तेजस्वी यादव, प्रियंका गांधी और प्रशान्त किशोर जैसे नेता अब वीडियो सन्देश, सोशल मीडिया लाइव और वर्चुअल संवाद के माध्यम से मतदाताओं से जुड़ रहे हैं। यह बदलाव दर्शाता है कि राजनीति अब मंच से मोबाइल तक पहुंच चुकी है| मतदाता भी इस बदलाव को सहजता से स्वीकार कर रहा है। मौसम की बाधा ने प्रचार की पारम्परिक शैली को चुनौती दी है, लेकिन साथ ही तकनीक की उपयोगिता को भी साबित किया है।
राजनीतिक दलों की रणनीति अब जातीय समीकरणों, महिला वोट बैंक और डिजिटल पहुंच पर केन्द्रित होती जा रही है। भरतीय जनता पार्टी और जेडीयू अर्थात जनता दल (यूनाइटेड) ने विकास, कानून व्यवस्था और सुशासन को अपना मुख्य मुद्दा बनाया है| जबकि राष्ट्रीय जनता दल बेरोजगारी और सामाजिक न्याय को लेकर जन संवाद चला रहा है। कांग्रेस महिला सशक्तीकरण और शिक्षा जैसे मुद्दों पर फोकस कर रही है। चुनाव प्रचार की शैली में भी बदलाव आया है| रथ यात्रा, डिजिटल रैली, महिला रैली, प्रेस वार्ता और सोशल मीडिया अभियान अब चुनावी रणनीति का हिस्सा बन चुके हैं। यह विविधता दर्शाती है कि बिहार का चुनाव अब केवल नारों और जन सभाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि मतदाता तक पहुंचने के लिए बहुआयामी प्रयास शुरू हो चुके हैं।
पहला चरण केवल शुरुआत नहीं, बल्कि चुनाव की दिशा तय करने वाला संकेतक है। 121 सीटों पर होने वाला मतदान राज्य की राजनीतिक धारा को प्रभावित करेगा। यदि मतदाता जाति से ऊपर उठकर मुद्दों पर मतदान करता है, तो यह राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण होगा। यदि महिला और युवा वर्ग निर्णायक भूमिका निभाते हैं तो यह सामाजिक पुनर्संरचना की ओर बढ़ता बिहार होगा। वहीं यदि मौसम की बाधा के बावजूद जनभागीदारी बनी रहती है तो यह लोकतन्त्र की जीवन्तता का उत्सव सिद्ध होगा।
बिहार का मतदाता अब केवल वोट नहीं देता बल्कि भविष्य की दिशा तय करने में सक्षम है। इस बार का चुनाव उसी दिशा की खोज है। यह चुनाव केवल सरकार चुनने का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, राजनीतिक समझ और लोकतान्त्रिक जिम्मेदारी का प्रतिबिम्ब है। पहले चरण के मतदान से जो संकेत मिलेंगे, वे न केवल अगले चरण की रणनीति को प्रभावित करेंगे, बल्कि यह भी तय करेंगे कि बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा| जातीय टकराव की राजनीति की ओर या समावेशी विकास की ओर?
चुनाव में मतदाता की दिशा सदैव अहम भूमिका निभाती है। आज का मतदाता केवल सुनता नहीं, सवाल भी करता है। वह अब केवल भीड़ का हिस्सा नहीं बल्कि निर्णय लेने में समर्थ है। और यही लोकतन्त्र की सबसे बड़ी शक्ति है।

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