राष्ट्रवाद, राष्ट्र के प्रति सर्वांगीण समर्पण। राष्ट्र निर्माण में सम्यक उपादेयता
राष्ट्रवाद सार्वभौमिक सत्य है। राष्ट्र के निर्माण में राष्ट्रवाद की भूमिका हमेशा अति महत्वपूर्ण रही है। देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी भी है कि उसकी राष्ट्र के प्रति गहरी निष्ठा,समर्पण हो, पर इसका कतई आशय नहीं है की सत्ता लोलुप राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रवाद को धर्म संप्रदाय से जोड़कर सत्ता हथियाने का अवसर या अस्त्र बनाने का प्रयास करें, निसंदेह इस बात से राष्ट्रीय भावना विखंडित,आहत होती है। ऐतिहासिक तौर पर लगातार सत्ता पर बने रहने के लालच से कोई भी राजा सम्राट अथवा बादशाह अछुता नहीं रहा हैl वर्तमान परिदृश्य में राजनीतिक पार्टी के नेता भी सत्ता लोलुपता से परे नहीं है, इस संदर्भ में कई बार राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़कर भावनात्मक तरीके से इसे सत्ता प्राप्ति का अस्त्र तथा अवसर बनाकर उपयोग किया जाता रहा है। सत्ता सदैव परिवर्तनशील होती रहनी चाहिए, यह एक स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा को और मजबूत बनाती हैl लगातार सत्ता किसी भी सत्ताधीश को निरंकुश बनाकर अधिनायकवाद के बीज को रोपित करती है
देश में अवसरवादी राजनीतिक दलों की उपस्थिति जातिवादी समीकरण के अतिवादी दृष्टिकोण, अब परिपक्व लोकतांत्रिक संस्थाओं का परिचालन एवं आमजन की सीमित तर्क बुद्धि एवं और दूरदर्शिता के कारण कई बार जनता के दूरगामी लाभ के स्थान पर तात्कालिक लाभ की प्रक्रिया से अवसरवादी अभिमत तथा तुष्टीकरण की नीति से जनता के लाभ के अवसर को दूर ले जाते हैंl
राजनीतिक पार्टियों की अवसरवादी तथा पद लोलुपता की अभिवृत्ति जनता को तुरंत लाभ देने की दूरदर्शन नीति लोकतंत्र को बहुत बड़े खतरे की ओर ले जाती है एवं इससे राष्ट्रीय विकास की क्षमता में बहुत ज्यादा स्खलन होने की संभावना होती हैl जनता के हितों उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर शोषण करना अंततः राष्ट्रीय चरित्र तथा अनुशासन के स्थान पर आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा चरित्र को जन्म देती हैl अवतारवाद राजनीति का एक अंग हो सकता है किंतु सदैव अवसरवाद तथा पद लोलुपता राजनीति को गर्त में ले जाने सदस्य है यह अलग मुद्दा है कि जन भावना बहुमत की भावना तथा सामाजिक प्रथाएं एवं तात्कालिक हित किसी भी लोकतंत्र के लिए आवश्यक अंग हो सकते हैं लोकतंत्र में विशेष परिस्थितियों में जनता का समर्थन प्राप्त करना एवं उनके हितों की रक्षा के लिए नए उपायों की अवधारणा उचित हो सकते और आवश्यक भी, किंतु राजनीति में पद लोलुपता अवसरवादी ता एवं जातिवाद को विखंडित करने की नियत किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के हित में नहीं दिखाई देती हैंl भारतीय परंपरा में भी शाम दाम दंड भेद सुशासन का प्रमुख उपकरण मान लिया गया है पर इसके दूरगामी परिणाम तुष्टीकरण के साथ-साथ अनुशासन की महत्ता को कमतर करने का कार्य करते हैंl यह सुनिश्चित है कि बिना विकसित लोकतांत्रिक उपकरणों के लोकप्रियता को मापना एक दुष्कर कार्य हो जाता है कई बार कम संख्या परंतु मजबूत संगठन वाले समूह के हित के लिए अनुचित साधन बनकर रह जाते हैं, और यही कारक बहुमत के शासन के लोकतांत्रिक आदर्श के विपरीत चले जाते हैंl लोकतांत्रिक मूल्यों सिद्धांतों को अवसरवादी का पत्ता एवं दलबदल क्षति पहुंचाने के बहुत बड़े कारण हैंl अवसरवाद तथा सत्ता की चाहत लोकतांत्रिक मूल्यों के दूरगामी दुष्परिणामों का बड़ा संकेत हो चुका है। भारतीय संविधान में भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के छोटे-छोटे छिद्रों से राजनीतिक दल अवसर के जो ताने बाने बुनते हैं उससे राजनैतिक एवं ऐतिहासिक प्रति मानव को हमेशा नुकसान ही हुआ है। अब राजनीति में सिद्धांतों की प्रतिबद्धता बहुत निम्न स्तर पर पहुंच गई है जिससे लोकतांत्रिक नीतियों और सिद्धांतों मैं बहुत ज्यादा विसंगतियां पैदा हो चुकी हैं। लोकतंत्र में बहुमत के साथ अधिनायकवाद अवतारवाद सत्ता लोलुपता और जातिगत समीकरणों का गलत तरीके से उपयोग सामंतवादी अलोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दे सकता है। जातिवादी मतदान की लोकप्रियता वादी मजबूरी के कारण खाप पंचायतों का उदय हुआ है जो पंचायती लोकतंत्र को प्रतिस्थापित कर के मूलभूत लोकतांत्रिक व्यवस्था के पतन का कारण भी बन सकता है। धर्म तथा धार्मिक प्रथाओं में समानता एवं स्वतंत्रता का हनन धार्मिक लोकतंत्र के अंत का ही स्वरूप है, जिसका कारण तुष्टीकरण आधारित लोकप्रियता वाद एवं अवतारवाद हो सकता है। पशु व्यापार गोवंश के पद पर एकतरफा प्रतिबंध को भी भारतीय लोकतंत्र के समानता स्वतंत्रता एवं धर्मनिरपेक्षता के आदेशों पर एक नकारात्मक कदम के रूप में देखा जा रहा है। अवतारवाद जातिवादी राजनीति और पद लोलुपता तानाशाही प्रवृत्ति को जन्म दे सकते हैं। अति राष्ट्रवादी होने के स्वरूप को ऑन कर तानाशाही की प्रवृत्ति को आम जनता के ऊपर लागना सैनिक तानाशाही अधिनायकवाद तथा फासीवाद को भी जन्म देने की प्रक्रिया के अंग हैं। लोकतंत्र में राजशाही की तरह शासकीय धन का मनमाना दुरुपयोग एक अनैतिकग प्रक्रिया है एवं यह सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का निम्न स्तरीय हथकंडा भी है। इससे न सिर्फ जनता पर करों का बोझ पड़ता है बल्कि सार्वजनिक रूप से किए जाने वाले जनहित के कार्यों का भी अवरोध बन जाता है। चुनाव में मतदान को प्रभावित करने के लिए टीवी में मोबाइल फोन लैपटॉप आदि का प्रॉब्लम भी लोकप्रियता किंतु आर्थिक दूरदर्शी एवं लोकतांत्रिक न्याय के प्रतिकूल है। बीसवीं सदी के लगभग सभी गांव द्वारा किस प्रकार के सैनिक राष्ट्रवाद द्वारा सस्ती लोकप्रियता पाकर लोकतंत्र को रोकने का प्रयास किया गया। पाकिस्तान म्यानमार उत्तर कोरिया देशों में व्यापक सुरक्षा हिंसा आतंकवाद पर नियंत्रण की लूट प्रिय तावादी धारणा का प्रयोग सैन्य प्रभाव को बरकरार रखने के लिए रो रहा है। लोकतंत्र का सदैव उद्देश्य तथा आदर्श जनता का समर्थन प्राप्त करना जनता किसानों की छांव की पूर्ति करना एवं जनता की हर सुविधा का ध्यान रखना है। पर देश का लोकतंत्र सत्ताचरिता, अवसरवादीता एवं एल्केन सत्तारूढ़ बने रहने की जुगत में क्षतिग्रस्त होता जा रहा है लोकतंत्र की भविष्य की संभावनाएं एवं उसके स्तंभ कमजोर होते जा रहे हैं ऐसे में देश के समृद्ध एवं प्रबुद्ध वर्ग को पहल करने आगे आना होगा वरना लोकतंत्र के दुरुपयोग के दूरगामी परिणाम विध्वंसकारी भी हो सकते हैं। पता अवसरवादी लोकप्रियता वादी विचारों के असंतुलित तात्कालिक लाभों के स्थान पर बहुआयामी लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही संतुलित विकास एवं समायोजन पर ध्यान देना चाहिए।परिणाम स्वरूप जनता ,सरकार ,राजनीतिक दल, मीडिया, सिविल सोसाइटी तथा अन्य सभी के हित की दृष्टि में बहुत ही व्यापक तथा दूरगामी परिणाम लाने वाले लोकतांत्रिक स्तंभ को एकजुट होकर सामाजिक संतुलन बनाए रखना होगा। एवं हम सभी के समेकित प्रयास से लोकतांत्रिक मूल्यों सिद्धांतों एवं उसकी मूलभूत अवधारणाओं की रक्षा हो सकेगी।
संजीव ठाकुर, चिंतक, लेखक, रायपुर छत्तीसगढ़, 9009 415 415,