लोकतंत्र को कमजोर करती है अवसरवादी राजनीति -ललित गर्ग-
कांग्रेस में लगातार वफादार नेताओं का पलायन जारी है, नये नामों में कांग्रेस के प्रवक्ता गौरव वल्लभ, महाराष्ट्र के जिम्मेदार एवं पूर्व मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरुपम, बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अनिल शर्मा, निशाना साधने वाले मुक्केबाज विजेंदर, आचार्य प्रमोद कृष्णम हैं, जिन्होंने कांग्रेस को बाय-बाय कर दी है। इन सभी ने कांग्रेस के मुद्दाविहीन होने, मोदी के विकसित भारत के एजेंडे, राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति एवं कांग्रेस की सनातन-विरोधी होने को पार्टी से पलायन का कारण बताया है। कुछ भी कहे, यह राजनीति में अवसरवाद का उदाहरण है, इस तरह का बढ़ता दौर चिंताजनक है। भारत की राजनीति में दलबदल की विसंगति एवं विडम्बना आजादी के बाद से लगातार देखने को मिलती रही है। पिछले साढ़े सात दशक के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पराभव के अक्स गाहे-बगाहे उजागर होते रहेे हैं। दलबदल के बढ़ते दौर ने अनेक सवाल खड़े किये हैं। कल तक विपक्ष में जो नेता दागी होते थे, सतारूढ़ दल में शामिल होने के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि उनके दाग दाग नहीं रहते। राजनीति में निष्ठाएं बदलने की स्थितियां आम नागरिकों को उद्वेलित कर रही हैं कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि दागी नेता सत्ता की धारा में डुबकी लगाकर दूध का धुला घोषित हो जाता है।
हर बार चुनावों की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों में ‘आयाराम-गयाराम’ का खेल शुरु हो जाता है। विभिन्न दलों के प्रभावी नेताओं को अपने दल में शामिल कराने की होड़ मची है, कभी कोई एक दल बाजी मारती हैं तो कभी कोई दूसरा दल। सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हो, पूर्व अधिकारी हो, अभिनेता हो या खिलाड़ी राजनीति में अपना भविष्य आजमाते रहे हैं। अगर भाजपा की विचारधारा किसी विजेंदर, गौरव या अनिल शर्मा जैसे लोगों हो क्यों अच्छी लगती है तो सवाल यह भी है कि पिछले पांच साल तक वे कांग्रेस में क्यों रहे? ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो गत वर्ष के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में एक पार्टी के चुनाव चिह्न पर उम्मीदवार थे तो अब दूसरी पार्टी का चुनाव चिह्न लेकर मैदान में उतरते दिख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इनदिनों भाजपा में जो विभिन्न दलों के तीस के लगभग राजनेता शामिल हुए हैं उनमें कांग्रेस, राकांपा, शिवसेना, टीएमसी, टीडीपी, एसपी और वाईएसआर कांग्रेस के नेता शामिल हैं। क्या यह भाजपा के निश्चित जीत की संभावनाओं का परिणाम है या केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के डर का परिणाम है। निश्चिय ही यह स्थिति किसी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये शुभ नहीं कही जा सकती।
देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि दलबदल का बढ़ता दौर कैसे रूके। राजनीति एवं राजनेताओं में नीति एवं सिद्धान्तों की बात प्रमुख होनी चाहिए लेकिन ऐसा न होना लोकतंत्र की बड़ी विसंगति है। राजनीति में सबकुछ जायज है वाली सोच एवं स्वार्थ की नीति दुर्भाग्यपूर्ण है। चुनाव का समय हर राजनेता के लिये अपने हित एवं स्वार्थ को चुनने का समय होता है, लेकिन उनके सामने लोकतंत्र के हिताहित का प्रश्न बहुत गौण हो जाता है। चुनावों में आचार संहिता के चलते कई प्रतिबंध लागू हो जाते हैं, लेकिन राजनीति में में दल-बदल पर नियंत्रण का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है, जबकि यह लोकतंत्र की जीवंतता एवं पवित्रता के लिये प्राथमिकता होनी चाहिए। सत्ता का स्वाद ही ऐसा होता है कि कोई भी राजनेता इससे अछूता नहीं रहता। इसीलिए आजकल दल बदलने का दौर खूब हो रहा है। यह बात दूसरी है कि ज्यादातर नेताओं में भाजपा का दामन थामने की होड़ मची है। एक दिन पहले भाजपा पर निशाना साधने एवं जीभर कर कोसने वाले नेताओं को एकाएक भाजपा इतनी अच्छी क्यों लगने लगती है? भाजपा को भी सोचना चाहिए कि आखिर ये अवसरवादी नेता जबभी उनके अनुकूल नहीं हुआ तो उसे भी बाय-बाय कर देंगे? भाजपा को यह भी देखना चाहिए कि पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर चंद घंटों पहले पार्टी में शामिल होने वाले को टिकट देना कहां तक उचित है। दलों को विचार करना ही होगा कि राजनीति के मायने चुनाव जीतना भर ही है या फिर वे विचारधारा के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं को मौका देकर राजनीति को स्वस्थ रखना चाहते हैं। लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों एवं नेताओं ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल एवं नेता सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एवं नेता एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। राजनीतिज्ञ पारे की तरह हैं, अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। सभी दल राजनीति नहीं, स्वार्थ नीति चला रहे हैं।
भाजपा को अपने 400 पार के लक्ष्य को हासिल करना है, इसके लिये वह हर-तरह के समझौते कर रही है, दागी नेताओं को भी अपनी पार्टी में जगह दे रही है। ऐसे नेताओं के अपराधों पर भी परदा डाला जा रहा है। विडंबना है कि राजनीतिक निष्ठा बदलना इन नेताओं के लिये राहतकारी साबित हुआ है। वजह यह कि इन नेताओं से जुड़े अपराध के मामले ठंडे बस्ते में डाल दिये गए हैं। जबकि दलील यह दी जाती है कि मामले बंद नहीं हुए हैं, जरूरत पड़ी तो जांच और कार्रवाई भी होगी। जो विपक्ष के उन आरोपों की पुष्टि करते हैं कि यह कार्रवाई राजनीतिक दुराग्रह एवं आग्रह के रूप में की जाती रही है। यही वजह है कि दल बदलने का फैसला राहत का रास्ता मान लिया जाता है। ऐसे में आम आदमी के मन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि अचानक जांच एजेंसियां निष्क्रिय क्यों हो जाती हैं? क्यों किसी एजेंसी को लेकर अदालत को कहना पड़ता है कि फलां एजेंसी पिंजरे में बंद तोता है और मालिक की बोली बोलता है। विपक्ष के ऐसे तमाम आरोपों की तार्किकता हाल में आई एक रिपोर्ट दर्शाती है। जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2014 के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच का सामना कर रहे 25 विपक्षी नेताओं के सत्तारूढ़ दल में शामिल होने के बाद उनमें से 23 को राहत मिल गई है। इनमें से तीन मामले बंद हो गए हैं और बीस की जांच रुकी हुई है। ऐसे अवसरवादी नेता फिर किसी नई पार्टी में नहीं जाएंगे इसको क्या गारंटी है? अच्छे लोग राजनीति में यदि सिर्फ पद पाने के लिए ही आए तो उसे क्या माना जाए? ऐसी जानी-मानी हस्तियां भी हैं जो आज यहां और कल वहां के उदाहरण पेश कर चुकी हैं। ऐसी सलेब्रिटी को पार्टी में शामिल होते ही टिकट से पुरस्कृत कर दिया जाता है।
राजनीतिक दलों को इस बड़ी विसंगति एवं अवसरवादिता पर विचार तो करना ही चाहिए कि आखिर कौन, किस इरादे से पार्टी में आ रहा है। ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं कि नामी-गिरामी लोगों ने राजनीति में प्रवेश किया, टिकट भी मिला और चुनाव जीते भी। उसके बाद जनता से जुड़ ही नहीं पाए और अगले चुनाव में इनका टिकट कट गया। स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो निष्पक्ष हो, ईमानदार हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट एवं सर्वजनहिताय का लक्ष्य लेकर चलने वाला हो। लेकिन स्वार्थी, अक्षम, दागी नेताओं को किसी भी दल में जगह देना यह उस दल की मजबूती एवं स्वस्थ राजनीति पर एक बदनुमा दाग है। विडम्बना है कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं। जाति, धर्म, स्वार्थ और वर्ग के मुखौटे ज्यादा हैं, मनुष्यता के चेहरे कम। तभी राजनीति अवसरवादिता का अखाड़ा बनती जा रही है।