नैनागिर में मिली श्री सिद्धचक्र स्तवन संस्कृत की अप्रकाशित पाण्डुलिपि डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
इस संस्कृत स्तवन का प्रथम पद्य मंगलाचरण और अंतिम पद्य पुष्पिका रूप है। इसके लेखक का उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। पाण्डुलिपि के प्रारंभ में लिखा गया है- ‘‘।।श्री जिनाय नमः।। ।। अथ सिद्धचक्र स्तवन प्रारंभ ।।’’ इसके अन्त में भी लिखा है- ‘‘।। इति श्री सिद्धचक्र स्तवन समाप्ता।। श्री वीतरागदेव जू।। ओं नमः सिद्धेभ्यः।। ।। ।।
प्रारंभिक पद्य इस प्रकार है-
अंतिम पद्य इस प्रकार है-
पुष्पिका में कहा गया है कि ‘‘इस प्रति को शुद्ध करके पढ़ें, मैं इसका संशोधन करने का अभ्यस्त नहीं हूँ। यदि इसमें अक्षर, मात्रा कम रह कई हो या अधिक हो गई हो तो इसमें मेरा ही दोष है।’ पद्य इस प्रकार है-
इस सिद्धचक्र स्तवन में प्रारंभ में सिद्धों व ऋषभ जिन को नमस्कार किया गया है। इसके उपरान्त पद्य संख्या 2 से 7 तक ध्यान, ध्यान की विधि और ध्यान का महत्त्व बताया गया है। आष्टम एवं नवम पद्य में ध्यानमग्न वीतरागी योगी की परा स्थित निरूपित की गई है। 10वें श्लोक में शांतिक, पौष्टिक, वश्य कर्म से ऊपर परमपद को प्राप्त जैनशक्ति हम सब की रक्षा करे। पश्चात् ‘ऊर्ध्वाधोरयुतं सबिंदु..’ संस्कृत सिद्धपूजा से मिलता-जुलता 11वां पद्य है। फिर देवाराधना, देवाधिदेव व सिद्धिचक्र को नमन किया गया है। उपरान्त एक लाख श्वेत पुष्पों से मंत्र का जाप, सिद्धचक्र की महिमा, महत्वपूर्ण मंत्र, उनकी विधि और उनके लाभ बताये गये हैं।
ओं, ह्रें, ह्रः, यः, ह्रीं, क्षं, ठं, हं, क्लीं, ओं, अर्हं, झ्रं, संवौषट् आदि को हथेलियों में कहां कहां स्थापित करके जाप और उनके फल बताते हुए कहा गया है कि इससे संग्राम में विजय, गज, सिंह, सर्प, दुर्व्याधि, रिपु, अपहरणादि के बंधन नष्ट होते हैं, भूत पीड़ा, ग्रहपीड़ा, निशाचर आदि की पीड़ा नष्ट होती है।
हमें यह ग्रन्थ प्रकाशित या अप्रकाशित कहीं देखने में नहीं आया और न और लगभग 200 शास्त्रभण्डारों के सर्वेक्षण में कहीं सूचीबद्ध मिला है।