उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991 और मन्दिर-मस्जिद विवाद डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)
अयोध्या में श्रीराम मन्दिर बनने के बाद से मथुरा और काशी सहित देश के कई अन्य मन्दिर-मस्जिद विवाद तूल पकड़ चुके हैं| इनमें सम्भल का मामला इन दिनों सर्वाधिक चर्च्रा में है| अयोध्या विवाद सुलझने के बाद हिन्दू समाज आज पूरी तरह आश्वस्त है कि मुस्लिम आक्रान्ताओं एवं शासकों ने जिन मन्दिरों को तोड़कर उनकी जगह कभी मस्जिदें बनवा दी थीं, वे सभी मन्दिर पुनः अपना स्वरुप धारण कर सकेंगे| लेकिन जब उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991 के प्रावधानों पर दृष्टि पड़ती है तो यह सब असम्भव जैसा प्रतीत होता है| उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991 या दि प्लेस ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविजन्स) एक्ट 1991, भारत की संसद द्वारा पारित एक कानून है| जिसे किसी उपासना स्थल का संपरिवर्तन प्रतिषिद्ध करने के लिए और 15 अगस्त 1947 को यथा विद्यमान किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरुप को बनाये रखने तथा उससे संसक्त या उसके आनुषंगिक विषयों का उपबन्ध करने के लिए बनाया गया था| यहाँ संपरिवर्तन का तात्पर्य किसी भी प्रकार के परिवर्तन या तब्दीली से है तथा उपासना स्थल का अभिप्राय मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर, मठ या लोक धार्मिक उपासना के किसी भी स्थल से है|
इस तरह उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आये किसी भी धर्म के उपासना स्थल को अन्य किसी धर्म के उपासना स्थल में बदलने पर स्पष्ट रोक लगाता है| अतः इस अधिनियम के रहते किसी भी उपासना या पूजा स्थल के रुप को बदलना सम्भव नहीं है| कानून का उल्लंघन करने पर जुर्माना तथा तीन साल तक के कारावास की सजा का प्रावधान है| अयोध्या के मन्दिर-मस्जिद विवाद को इस कानून से मुक्त रखा गया था| यह अधिनियम बनाने की आवश्यकता भी तभी महसूस की गयी थी जब श्रीराम मन्दिर आन्दोलन अपने चरम पर था तथा मथुरा एवं काशी सहित अन्य कई मन्दिर-मस्जिद विवाद भी सामने आने लगे थे| अतः देश का साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के उद्देश्य से तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार यह कानून लेकर आयी थी| यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अयोध्या के अतिरिक्त अन्य सभी मन्दिर-मस्जिद विवादों के दोनों पक्षकारों विशेषकर हिन्दू समाज के स्वयंभू प्रतिनिधियों को क्या इस अधिनियम की जानकारी नहीं है? यदि जानकारी है तो उन्हें सर्वप्रथम इस कानून को निरस्त अथवा इसमें आवश्यक परिवर्तन करने की मांग सरकार से करनी चाहिए| लेकिन ऐसा होता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है| तब फिर क्या इस तरह के विवाद सिर्फ आम आदमी को गुमराह करने के लिए किसी राजनीतिक षड्यन्त्र के तहत किये जा रहे हैं? समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए|
वर्तमान समय में मथुरा और काशी सहित लगभग एक दर्जन धार्मिक स्थलों एवं स्मारकों के विवाद चर्चा में हैं| जिनके बारे में यह कहा जाता है कि मौजूदा मस्जिदों, दरगाहों एवं स्मारकों का निर्माण मन्दिर तोड़कर कराया गया था| चाहे वह काशी की ज्ञानवापी मस्जिद हो, चाहे मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद हो अथवा सम्भल की जामा मस्जिद हो| इसी क्रम में जौनपुर, उत्तर प्रदेश की अटाला मस्जिद| बदायूं, उत्तर प्रदेश की शम्सी जामा मस्जिद| लखनऊ की टीले वाली मस्जिद| धार, मध्य प्रदेश की कमल मौला मस्जिद| राजस्थान के अजमेर में स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह| चिकमंगलूर, कर्नाटक की बाबा बुदनगिरि दरगाह| मेंगलुरु, कर्नाटक में बनी जामा मस्जिद| दिल्ली के कुतुबमीनार परिसर में स्थित कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद| पश्चिम बंगाल के मालदा की अदीना मस्जिद तथा विदिशा, मध्यप्रदेश का बीजामण्डल आदि के विवाद इस समय देश के साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं| इनमें कुछ मामलों में अदालत के आदेश पर सर्वे भी हो चुके हैं| जबकि कुछ के सर्वे हेतु याचिकाएं लम्बित हैं| सम्भल की जामा मस्जिद की जगह हरिहर मन्दिर होने का दावा पेश होने के बाद अदालत के आदेश पर दूसरे चरण का सर्वे करने पहुंची टीम पर पथराव कर दिया गया था| इसके बाद भड़की हिंसा में पांच लोगों की मृत्यु हो गयी थी| भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से कोई भी इंकार नहीं कर सकता| जो देश की कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है|
गौरतलब है कि उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991 पूजा स्थलों के रूप परिवर्तन पर तो रोक लगाता है परन्तु सर्वेक्षण की बात पर मौन हो जाता है| जो इसके साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने वाले परम उद्देश्य को प्रभावहीन कर देता है| क्योंकि यदि किसी मस्जिद, दरगाह, स्मारक या उपासना स्थल के सर्वे से यह सिद्ध हो जाता है कि इसका निर्माण मन्दिर या अन्य उपासना स्थल को तोड़कर करवाया गया है| तब फिर आम जन के बीच उक्त मस्जिद, दरगाह, स्मारक आदि को हटाकर दुबारा से मन्दिर बनाने की मांग उठेगी| जिसमें उपासना स्थल (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1991 अवरोध बनकर खड़ा हो जायेगा| परिणामस्वरुप आन्दोलन शुरू होंगे और दोनों वर्ग आमने-सामने आकर सड़क पर फैसला करने का प्रयास करेंगे| जिसकी परिणिति अन्ततोगत्वा हिंसक ही होगी| बुनियादी समस्याओं से जूझते आम आदमी के लिए यह स्थिति अत्यन्त घातक है| अतः आवश्यक है कि सरकार तथा समाज इस दिशा में ठोस पहल करे|
यह सर्वविदित है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों एवं शासकों ने भारत के अनेक मन्दिरों को न केवल लूटा अपितु उनके स्वरुप को भी नष्ट किया था| इसी क्रम में अयोध्या सहित कई चर्चित मन्दिर तोड़कर मस्जिद में भी परिवर्तित किये गये थे| जिसका उद्देश्य भारत में इस्लामिक शासन की नींव को मजबूत करना ही रहा होगा| जिसमें वे उस समय बहुत हद तक सफल भी रहे| अभी तो मात्र एक दर्जन के लगभग उपासना स्थल ऐसे हैं, जहाँ विवाद की स्थिति बनी हुई है| परन्तु यह संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है| क्योंकि जिस बस्ती, ग्राम, नगर या मोहल्ले के हिन्दुओं ने परिस्थितिवश जब कभी सामूहिक रूप से इस्लाम स्वीकार किया होगा| तब जाहिर तौर पर उस बस्ती, ग्राम, नगर या मोहल्ले के तत्कालीन मन्दिर उनके लिए व्यर्थ हो गये होंगे| अतः जिस तरह पूरी बस्ती ने अपना धर्म बदला होगा उसी तरह उस बस्ती के मन्दिरों का ऊपरी हिस्सा तोड़कर उसे मस्जिद का आकार दे दिया होगा| अर्थात उपासना का प्रकार बदला तो उपासना स्थल का रूप भी बदलना पड़ा| परन्तु उपासना की जगह नहीं बदली गयी| सम्भवतः उन सबको तब यह विश्वास रहा होगा कि यह धर्म परिवर्तन स्थाई नहीं है| जैसे ही परिस्थितियां बदलेंगी वैसे ही सभी लोग फिर से हिन्दुत्व धारण कर लेंगे तथा इन अस्थाई मस्जिदों को हटाकर पुनः अपने मन्दिर बना लेंगे| परन्तु समय के चक्र ने उन्हें यह अवसर नहीं दिया और वर्ष दर वर्ष ही नहीं सदियाँ गुजर गयीं| जो कभी अस्थाई था वह आज स्थाई हो गया और जो स्थाई था वह अब कल्पना से परे दिखाई देने लगा है| जिसकी परिणिति मन्दिर-मस्जिद विवाद के रूप में हमारे सामने है|
डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)
मो.9450329314

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