बिहार में तेजस्वी के नाम पर मुहर मजबूरी भरी स्वीकृति -ललित गर्ग-
बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान की तिथियां जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, चुनाव के सतरंगी रंग देखने को मिल रहे हैं। बिहार की राजनीति में आखिरकार उस घोषणा का रंग भी देखने को मिल ही गया, जिसका सबको इंतज़ार था। आखिरकार तेजस्वी यादव को महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया गया है। यह निर्णय ‘देर आए, दुरुस्त आए’ की कहावत को चरितार्थ करता है। लंबे समय से इस पर राजनीतिक अटकलें लगाई जा रही थीं कि कांग्रेस क्या तेजस्वी के नेतृत्व को खुले तौर पर स्वीकार करेगी या नहीं? अंततः उसने तेजस्वी पर भरोसा जताया, पर यह भरोसा एक प्रकार की मजबूरी भरी स्वीकृति भी लगती है, न कि उत्साहपूर्ण गठबंधन की रचनात्मक एकजुटता। यह घोषणा कांग्रेस नेता अशोक गहलोत की ओर से की गई। इसी के साथ विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआइपी के प्रमुख मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम का चेहरा घोषित किया गया। अशोक गहलोत की इस घोषणा से पता चलता है कि बिहार में कांग्रेस की स्थिति मजबूत नहीं है, उसने मुख्यमंत्री का चेहरा अनिच्छा से ही उजागर नहीं किया था, इस अनिच्छा से यही झलका कि कांग्रेस अभी भी गठबंधन राजनीति के धर्म का मर्म समझने में उलझी है, यह राहुल गांधी की नाकाम राजनीति का भी द्योतक है, ऐसे मामलों में वे अपरिपक्वता का ही परिचय देते रहे हैं।
क्या कांग्रेस ऐसा कुछ मानकर चल रही थी कि महागठबंधन के जीतने की सूरत में तेजस्वी यादव के अतिरिक्त अन्य कोई मुख्यमंत्री का दावेदार हो सकता है? उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि वह बिहार में अपनी राजनीतिक महत्ता बनाए रखने के लिए राजद पर ही निर्भर है। उसकी ऐसी ही निर्भरता अन्य राज्यों में भी वहां के क्षेत्रीय दलों पर है। जब तक वह अपने बलबूते चुनाव लड़ने की सामर्थ्य नहीं जुटा लेती, तब तक उसे उन्हें दबाव में लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। उसके पास न प्रभावशाली चेहरा है, न जनाधार। हाल के चुनावों में उसका प्रदर्शन लगातार निराशाजनक रहा है। ऐसे में कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं था कि वह नेतृत्व की भूमिका की बजाय सहयोगी भूमिका निभाए। तेजस्वी यादव के रूप में राजद आज बिहार में विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत है। यह भी एक वास्तविकता है कि जिस तरह से नीतीश कुमार का जनाधार खिसक रहा है, तेजस्वी उस रिक्त स्थान को भरने की क्षमता रखते हैं। तेजस्वी यादव ने पिछले कुछ वर्षों में अपने नेतृत्व को निखारा है। उन्होंने ‘नौकरी, विकास और सम्मान’ जैसे मुद्दों को अपने राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनाया है। उनकी भाषा में युवाओं की बेचैनी, बेरोज़गारी का दर्द और अवसरों की तलाश झलकती है। बिहार के युवा अब जातीय राजनीति से ऊपर उठकर रोज़गार और जीवन की गुणवत्ता के सवाल पूछने लगे हैं, और तेजस्वी इन्हीं सवालों को अपनी ताकत बना रहे हैं। हाल के वर्षों में उनके तेवर में जो परिपक्वता आई है, वह बताती है कि वे अब सिर्फ ‘लालू के पुत्र’ नहीं, बल्कि स्वयं का राजनीतिक ब्रांड बन चुके हैं। उनका ‘जनादेश’ अब सिर्फ परंपरा या पारिवारिक विरासत पर आधारित नहीं है, बल्कि नये बिहार की आकांक्षाओं से जुड़ने की कोशिश है।
एनडीए ने पहले ही अपने पत्ते खोल दिए थे और सीट बंटवारे की घोषणा कर दी थी। लेकिन, उन्होंने किसी एक चेहरे को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं किया है। यह अपने आप में एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि पिछले दो दशकों से नीतीश कुमार ही एनडीए का चेहरा रहे हैं। महागठबंधन ने तेजस्वी को सीएम उम्मीदवार बनाकर एनडीए पर दबाव बनाने की कोशिश की है। यह चुनाव बिहार के लिए बहुत महत्वपूर्ण एवं दिलचस्प है और इसमें वादों का दौर भी जारी है। नीतीश सरकार ने कई घोषणाएं की हैं, तो वहीं तेजस्वी यादव ने भी जनता से कई वादे किए हैं। महागठबंधन का घोषणापत्र आने वाला है, जिसमें कई बड़े वादे होने की उम्मीद है। यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता किस वादे पर भरोसा करती है और बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन बनता है। ताजा परिदृश्यों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के विकास की राजनीति ही बढ़त बनाये हुए है। भाजपा ने बिहार में धीरे-धीरे अपना जनाधार बढ़ाया है, अब भी वह स्वतंत्र चुनाव न लड़कर क्षेत्रीय दलों के सहारे आगे बढ़ रही है। भले ही नीतीश कुमार, जिन्होंने वर्षों तक ‘सुशासन बाबू’ की छवि से राजनीति की, अब थके हुए और अविश्वसनीय से प्रतीत होने लगे हैं। बार-बार गठबंधन बदलने, राजनीतिक अवसरवाद और प्रशासनिक निष्क्रियता ने उनकी साख को गहरी चोट पहुंचाई है। जनता अब बदलाव चाहती है। यह बदलाव किस रूप में सामने आयेगा, यह भविष्य के गर्भ में हैं। यदि यह बदलाव तेजस्वी के नेतृत्व में संभव होता है तो यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि राजनीतिक पीढ़ी परिवर्तन भी होगा। हालांकि तेजस्वी के चेहरे पर सहमति एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन यह गठबंधन की एकजुटता की गारंटी नहीं। कांग्रेस और वाम दलों के बीच सीट बँटवारे को लेकर असहमति फिर उभर सकती है। बिहार का मतदाता जातीय समीकरणों से प्रभावित रहता है, और भाजपा-जेडीयू गठबंधन इस बिंदु पर अब भी मजबूत स्थिति में है। इसके अलावा, तेजस्वी को छवि सुधार और जनसंपर्क के नए मॉडल पर भी काम करना होगा- भ्रष्टाचार, परिवारवाद और अस्थिरता के पुराने आरोपों से वे अब भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। अगर वे इस बार भी भावनाओं की राजनीति पर अटके रहे, तो जनता का भरोसा खिसक सकता है।
तेजस्वी यादव का मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनना बिहार की राजनीति में एक जनसांस्कृतिक परिवर्तन का संकेत भी है। यह निर्णय दिखाता है कि अब राजनीतिक विमर्श का केंद्र युवा आकांक्षाओं, आर्थिक अवसरों और विकास की बराबरी की ओर बढ़ रहा है। कांग्रेस का झुकना केवल राजनीतिक गणित नहीं, बल्कि यह स्वीकारोक्ति है कि अब बिहार में नई पीढ़ी के नेतृत्व से ही राजनीतिक भविष्य तय होगा। तेजस्वी यादव का उदय केवल एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं है, बल्कि बदलते समय की पुकार है। बिहार की जनता लंबे समय से ठहरे हुए शासन और खोखले वादों से थक चुकी है। अब वह ऐसे नेतृत्व की तलाश में है जो न केवल सत्ता चाहता हो, बल्कि संवेदना और संघर्ष का प्रतीक भी बने। कांग्रेस ने भले ही देर से यह निर्णय लिया हो, पर यदि महागठबंधन इस घोषणा को एकजुट रणनीति में बदल सके, तो यह बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय खोल सकता है, जहाँ देर आए, पर दुरुस्त आए केवल कहावत नहीं, बल्कि राजनीतिक सच्चाई बन जाए।
तेजस्वी यादव को सीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ-साथ वीआइपी प्रमुख मुकेश सहनी को जिस तरह डिप्टी सीएम के रूप में आगे लाया गया, उससे उनकी राजनीतिक हैसियत का अनुमान लगता है, लेकिन उनकी पार्टी तो महज 15 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और कांग्रेस उससे चार गुने से अधिक सीटों पर। हालांकि अशोक गहलोत ने यह स्पष्ट किया है कि और भी डिप्टी सीएम बनाए जाएंगे, पर इससे यह संदेश ओझल नहीं होता कि कांग्रेस की राजनीतिक ताकत वीआइपी से भी कम है। निःसंदेह अशोक गहलोत की घोषणा से महागठबंधन और विशेष रूप से उसका नेतृत्व कर रहे राजद को लाभ मिल सकता है, लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि अब इस गठबंधन में सब कुछ सही हो गया है। महागठबंधन के 10 से अधिक प्रत्याशी एक-दूसरे के सामने हैं। महागठबंधन की राजनीति चुनाव होने एवं चुनाव परिणाम के बाद भी कई रंग बदलेगी, इसलिये उसकी डगर निष्कंटक तो नहीं कही जा सकती। महागठबंधन के जीतने की सूरत में तेजस्वी यादव के अतिरिक्त अन्य कोई मुख्यमंत्री का दावेदार हो सकता है, यह भी प्रश्न तेरता रहेगा। फिलहाल तेजस्वी के मुख्यमंत्री का फैसला महागठबंधन के लिए एक बड़ी जीत है क्योंकि इससे उनकी एकजुटता का संदेश पूरे बिहार में जाएगा।

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