अहम् ब्रह्मास्मि समझने की भूल कर बैठीं मायावती, जीरो से माइनस की ओर जाता बसपा का कारवां
 
                मायावती को आयरन से एल्युमुनियम लेडी बनाए कौन?
माया को बनना होगा डिप्लोमेटिक, पुराने लगाएं हैं आस
उपदेश टाइम्स समाचार पत्र ब्यूरो रिपोर्ट संतोष कुमार जौनपुर उत्तर प्रदेश
पार्टी का देवदूत भेजकर सबको एक मंच पर लाना होगा
सपा के पीडीए को चुनौती सिर्फ बसपा हीं दे पाएगी
मतभेद छोड़ परिपक्व राजनीतिज्ञ का देना होगा परिचय
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की हालिया राजनीतिक स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद, अब 2024 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। मायावती के कई निर्णय, जैसे चुनावी गठबंधन से दूरी बनाना, जमीनी कार्यकर्ताओं से संवाद की कमी और दलित वोट बैंक पर एकाधिकार की धारणा, बसपा के गिरते ग्राफ के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हैं। इसका कारण साफ है। अहम् ब्रह्मास्मि समझने की भूलकर बैठीं मायावती। उन्हें अपनी परिपक्व राजनीति का परिचय देते हुए आयरन लेडी से एल्युमुनियम लेडी बनना होगा, तभी सपा के पीडीए को तोड़ने के साथ भाजपा में शिफ्ट हुए वोट को वापस ला सकती हैं। इसकी पहल अभी से उन्हें करनी चाहिए, तभी इसका परिणाम 2027 में उन्हें देखने को मिल सकता है। साथ ही दलितों की आस भी पूरी हो सकती है।
गौरतलब है कि बसपा का मुख्य आधार दलित वोटर रहा है, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में यह वोट बैंक भाजपा और समाजवादी पार्टी की ओर शिफ्ट होता दिखा है। मायावती की निष्क्रिय राजनीति और दूसरी पंक्ति के नेतृत्व का अभाव भी पार्टी को कमजोर कर रहा है। इसके अलावा, मुस्लिम और ओबीसी वोटर भी बसपा से दूर होते जा रहे हैं। यदि बसपा अपनी रणनीति नहीं बदलती और जमीनी स्तर पर संगठन को मजबूत नहीं करती, तो आने वाले चुनावों में यह और अधिक नुकसान झेल सकती है। मायावती के फैसले अगर जनता की उम्मीदों के विपरीत रहे, तो बसपा का असर और सीमित होता जाएगा, जिससे यह “जीरो से माइनस” की ओर बढ़ सकती है।
आकाश आनंद को बाहर करने पर प्रभाव
बसपा सुप्रीमो मायावती ने हाल ही में अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह फैसला न सिर्फ पार्टी के लिए बल्कि दलित राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण है। सवाल उठता है कि क्या मायावती का यह कदम सही रणनीतिक फैसला है या इससे बसपा और कमजोर होगी? क्या दलित वोट बैंक अब भी बसपा के साथ रहेगा या किसी और विकल्प की तलाश करेगा? सबसे महत्वपूर्ण बात, क्या मायावती कांशीराम के सपनों को साकार कर रही हैं या उनके संघर्ष पर पानी फेर रही हैं? कांशी राम ने पार्टी तोड़ने के लिए उन्हें उत्तराधिकारी नहीं बनाया था। यह बात भी मायावती को सोचना होगा। अगर वह ऐसा करती है तो दलित और ओबीसी समाज उन्हें माफ नहीं करेगा। आने वाले दिनों में जब इतिहास लिखा जाएगा उस समय मायावती का क्या इतिहास होगा यह खुद बहनजी को सोचना पड़ेगा। उन्हें तो अब राजनीति से अवकाश लेकर किसी अच्छे कैडर वाले दलित को उत्तराधिकारी बनाना चाहिए जो बाबा साहेब के मिशन को लेकर चलने वाला हो। यह पार्टी दलितों की है किसी के घर की नहीं है जो कि उत्तराधिकारी कोई घर का बने। देश में लाखों की संख्या में अंबेडकर और बुद्ध के अनुआई है किसी भी दलित को भी पार्टी की बागडोर सौंपी जा सकती है। सपा और भाजपा में भी कई दलित महिला हैं जो संसद और उत्तर प्रदेश की विधानसभा में दहाड़ रहीं हैं। उस ओर भी बहनजी का ध्यान जाना चाहिए। मगर ध्यान जाएगा तो कैसे उन्होंने तानाशाही रवैया जो अपनाया है। संप्रेषण और कम्युनिकेशन के खिड़की और दरवाजे बंद रखे है। तो दलितों की बात तो दूर शुद्ध, सही और स्वच्छ विचार भी नहीं जा सकते उनके पास। सबसे बड़ी भूल तो उन्होंने पार्टी को ब्राहमण के हवाले करके कर दिया। इतिहास गवाह है कि जिस भी पार्टी में ब्राह्मण रहे वहां उच्च पदों पर आसीन होकर अपने लोगों को मलाई खिलाई पार्टी का पतन किया फिर वहां से अपने लोगों को दूसरे दल में भेज दिया जो सत्ता में हो। यही होता है चाणक्य की बुद्धि और दलितों की बुद्धि में अंतर।
मौजूदा स्थिति और मायावती की रणनीति
बहुजन समाज पार्टी एक समय उत्तर प्रदेश की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक ताकत थी। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों का एक बड़ा तबका मायावती के साथ था। लेकिन 2012 के बाद से बसपा का जनाधार लगातार गिरता गया। 2014, 2019 और 2022 के चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। 2022 के विधानसभा चुनावों में तो बसपा महज 1 सीट पर सिमट गई।
ऐसे में मायावती के पास दो विकल्प थे—या तो वह पार्टी को नए नेतृत्व और नई सोच के साथ पुनर्जीवित करतीं या फिर अपनी पुरानी कार्यशैली को ही बनाए रखतीं। आकाश आनंद को पार्टी से बाहर करने का फैसला यह दर्शाता है कि मायावती बदलाव की राह पर जाने को तैयार नहीं हैं। वह अब भी पार्टी को अपने हाथों में रखना चाहती हैं और किसी और को नेतृत्व सौंपने को राजी नहीं हैं। बस यहीं कारण कांग्रेस के भी साथ है जिस कारण केंद्र और प्रदेश में भाजपा बनी हुई है। कहने का आशय की भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए ये पार्टियां खुद जनता को मजबूर कर रही हैं।
आकाश आनंद बसपा का युवा चेहरा?
आकाश आनंद बसपा के युवा चेहरे के रूप में उभर रहे थे। उन्होंने कई रैलियों में जोश भरे भाषण दिए और युवाओं को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन मायावती के फैसले ने उनके राजनीतिक भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे बसपा के युवा समर्थकों में निराशा है। वे मायावती के इस कदम को परिवारवाद के खिलाफ सख्ती कह सकते हैं, लेकिन सच्चाई यह भी है कि आकाश आनंद को बाहर करने से पार्टी में नेतृत्व का संकट और गहरा गया है।
उनकी तुलना कभी कभार अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे युवा नेताओं से की जाने लगी। उन्होंने दलितों के अलावा ओबीसी और मुस्लिम वोटर्स को भी जोड़ने की कोशिश की। हालांकि ये विरासत की राजनीति को जनता ज्यादा दिन तक पसंद नहीं करती। भाजपा को देख लीजिए कौन शीर्ष नेता विरासत से बना है। अगर विरासत वाले में योग्यता भी है तो उसे मौका नहीं दिया जाएगा बल्कि उसे उसके समकक्ष का दूसरा पद देकर लाभ देने की कोशिश की जाएगी।
दलित वोट बैंक बसपा से खिसक रहा है
कभी बसपा का मजबूत किला माने जाने वाला दलित वोट बैंक अब दरकने लगा है। 2014 के लोकसभा चुनावों में दलितों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ गया। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में यह प्रवृत्ति और मजबूत हुई। भाजपा ने दलितों को आरक्षण, मुफ्त राशन और सरकारी योजनाओं के जरिए लुभाया वहीं, भीम आर्मी और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेता नए दलित नेतृत्व के रूप में उभर रहे हैं।
बसपा की सबसे बड़ी ताकत कांशीराम की “सामाजिक इंजीनियरिंग” थी। उन्होंने दलितों, पिछड़ों और मुस्लिमों को जोड़कर एक मजबूत गठबंधन तैयार किया था। मायावती ने 2007 में ब्राह्मण-दलित गठबंधन बनाकर सफलता पाई, लेकिन बाद में यह रणनीति भी फेल हो गई। अब सवाल यह है कि मायावती किस आधार पर बसपा को फिर से खड़ा करेंगी?
कांशीराम के सपने को लगा धक्का
कांशीराम ने बसपा को सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन के रूप में खड़ा किया था। उन्होंने कहा था कि दलितों को सत्ता में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, न कि केवल वोट बैंक बनकर रहना चाहिए।
लेकिन आज की बसपा उस आंदोलन से कोसों दूर है। न तो पार्टी में जमीनी कार्यकर्ता बचे हैं और न ही नेतृत्व में नई सोच दिख रही है। मायावती का एकछत्र शासन पार्टी को कमजोर कर रहा है। उन्होंने एक के बाद एक कई नेताओं को बाहर कर दिया—चाहे वह सतीश चंद्र मिश्रा हों, नसीमुद्दीन सिद्दीकी हों, स्वामी प्रसाद मौर्य हों या फिर अब आकाश आनंद। अगर यही स्थिति रही, तो दलित वोट बैंक नए विकल्पों की तरफ जाएगा। चंद्रशेखर आज़ाद, समाजवादी पार्टी और यहां तक कि भाजपा भी दलितों को लुभाने की कोशिश कर रही है। मायावती को आत्मचिंतन करने की जरूरत है। वह खुद अपने गिरेबान में देखे की अब वह अच्छी वक्ता भी नहीं रही बिना देखे बोल भी नहीं सकती। यह समय की मार है उनके ऊपर। कहा जाता है कि समय की लाठी जब पड़े तो इंसान को सचेत हो जाना चाहिए, लेकिन मायावती का निर्णय हाशिये के समाज पर तगड़ा प्रहार है। भीम आर्मी के सांसद चंद्रशेखर ने भी मायावती को फोन मिलाकर दिखा दिया कि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी से बात नहीं करतीं। उनसे समय लेना होता है। यह वीडियो उन्होंने मीडिया से बातचीत कर वायरल भी किया है।
बसपा के लिए आगे का रास्ता
अगर मायावती चाहती हैं कि बसपा फिर से खड़ी हो, तो उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी। पार्टी को सिर्फ एक व्यक्ति के नियंत्रण से निकालकर सामूहिक नेतृत्व की तरफ ले जाना होगा। युवा नेताओं को आगे लाना होगा, दलितों के साथ-साथ अन्य वंचित वर्गों को भी जोड़ना होगा। राजनीति में नई पारी की शुरुआत करने वाली कई सपा के तेजतर्रार विधायक को अपनी ओर आकर्षित करना होगा। सभी को कुशलक्षेम पूछकर एक साथ जोड़ना होगा। भगवान ने जीवन एक बार दिया है अगले जीवन की कल्पना ही की जा सकती है किसी ने देखा नहीं है। इसलिए मरने पर आपका नाम इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाए। इसके लिए कुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी, लोगों ने अपनी जान तक गवाईं है घर को बर्बाद किया है। आप जेल जाने से क्यों डरती है। कायर शासक कहलाने से अच्छा राजनीति से संन्यास ले लीजिए। यहीं आपके लिए ज्यादा लाभकारी होगा, क्योंकि जिंदा कौम ज्यादा इंतजार नहीं करती। हो सकता कोई नई पार्टी बनाकर सभी आपके पुराने साथी एक मंच पर आ जाएं।
अगर मायावती के व्यवहार में सुधार नहीं आता है तो बसपा धीरे-धीरे हाशिए पर चली जाएगी। जिस सपने को कांशीराम ने देखा था, वह सिर्फ इतिहास की किताबों में रह जाएगा। आज का समय नई राजनीति और नई रणनीति का है। अगर मायावती ने समय रहते अपनी नीति नहीं बदली, तो दलितों का समर्थन पूरी तरह बिखर सकता है।
डॉ. सुनील कुमार
राजनीतिक विश्लेषक, पत्रकार
सहायक प्रोफेसर जनसंचार विभाग
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर

 
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