संसद को बाधित करना राष्ट्र को बाधित करना है -ललित गर्ग-
भारत की संसद का शीतकालीन सत्र 1 दिसंबर से आरंभ हो रहा है और इसके प्रारंभ होने से पहले हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष ने आने वाले दिनों में संसद की कार्रवाई के हंगामेदार होने का संकेत देने में देर नहीं लगाई। विपक्ष ने स्पष्ट कर दिया है कि वह एस.आई.आर. सहित कई मुद्दों पर जोरदार ढंग से सदन में अपनी आवाज उठाएगा। विपक्ष संसद में सवाल उठाए, आवाज उठाए, यह उसका संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य है, लेकिन मुद्दा यह है कि क्या यह अधिकार सार्थक बहस के रूप में सामने आएगा या एक बार फिर हंगामे की भेंट चढ़कर भारत के लोकतंत्र को शर्मसार करेगा। मॉनसून सेशन अगर ऑपरेशन सिंदूर के नाम था, तो इस बार बहस के केंद्र में एस.आई.आर. है। लेकिन, सरकार और विपक्ष-दोनों से ही सदन के भीतर ज्यादा समझदारी, संयम, शालीनता और सहयोग की अपेक्षा है, ताकि सत्र में अधिक काम हो सके। शीतकालीन क19 दिसंबर तक चलना है। इसमें कुल 15 दिन कार्यवाही चलेगी और इस दौरान शिक्षा, सड़क और कॉरपोरेट लॉ संबंधी कई अहम बिल पेश किए जाएंगे। इसी सत्र में हेल्थ सिक्यॉरिटी एंड नैशनल सिक्यॉरिटी सेस बिल, 2025 भी रखा जा सकता है, जिसका मकसद देश के हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा तैयारियों के लिए एक नया उपकर लगाना है। सारे ही बिल-प्रस्ताव महत्वपूर्ण हैं और इन पर सार्थक बहस की जरूरत है।
निश्चित दौर पर पिछले अनेक वर्षों से संसद की कार्रवाई हंगामे, शोर-शराबे, नारेबाजी की भेंट चढ़ती रही है। पिछला सत्र इस संदर्भ में बेहद निराशाजनक रहा। वेल में आकर नारेबाजी, कुर्सियां ठोकने, प्लेकार्ड दिखाने और लगातार स्थगन जैसे दृश्य दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण तस्वीर पेश करते रहे। वह सत्र देश के संसदीय इतिहास के सबसे कमजोर प्रदर्शन वाले सत्रों में गिना गया, जब लोकसभा की प्रॉडक्टिविटी महज 31 प्रतिशत के आसपास और राज्यसभा की लगभग 39 प्रतिशत रही। हंगामे और शोर-शराबे की वजह से दोनों सदनों में कई महत्वपूर्ण घंटे बर्बाद हो गए थे। सवाल यह है कि आखिर यह परंपरा कब बदलेगी? कब हमारे जनप्रतिनिधि समझेंगे कि संसद का एक-एक मिनट देश के करोड़ों लोगों की गाढ़ी कमाई से चलता है? एक मिनट का व्यर्थ खर्च लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुंचाता है। संसद केवल बहस का मंच नहीं बल्कि देश की नीतियों, कानूनों और विकास-दिशा को तय करने वाला सर्वाेच्च स्थल है। लोकतंत्र की सफलता का मूलमंत्र जनता द्वारा चुनकर भेजे गए प्रतिनिधियों की सजगता, जवाबदेही और गरिमा है। इसलिए संसद का हर क्षण अर्थपूर्ण, कार्यकारी होना चाहिए, हर चर्चा राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने वाली होनी चाहिए और हर बहस शालीनता तथा परिपक्वता की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए।
सत्र को सुचारुरूप से चलाने के लिये सरकार की ओर से सर्वदलीय बैठक आयोजित करना एक स्वस्थ एवं सौहार्दपूर्ण परम्परा एवं एक आशा की किरण है। इस बार भी सत्र शुरू होने से पहले 36 दलों का एक साथ बैठक करना एक अच्छी शुरुआत है। यह बैठक केवल औपचारिकता नहीं बल्कि संवाद और सहयोग की दिशा में एक सार्थक पहल है। देश यह उम्मीद कर सकता है कि यदि सदन का संचालन भी इसी सकारात्मक भावभूमि पर हुआ तो यह सत्र एक आदर्श परंपरा स्थापित कर सकता है। लोकतंत्र में मतभेद होना स्वाभाविक है, परंतु मनभेद अनिवार्य नहीं। संसद उन मनभेदों को संवाद में बदलने का पवित्र स्थान है। निश्चित ही विपक्ष की भी अपनी मांगें हैं, जिसे सर्वदलीय बैठक में रखा गया। विपक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा, एसआईआर, वायु प्रदूषण और विदेश नीति पर विस्तृत चर्चा चाहता है। अच्छी बात है कि विपक्षी दलों ने इस बारे में पहले ही अवगत करा दिया है और संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू के ही मुताबिक, किसी ने भी यह नहीं कहा कि संसद नहीं चलने दी जाएगी। सरकार और विपक्ष, दोनों का इस पर सहमत होना कि सदन चलना चाहिए, स्वागत योग्य है।
इस सत्र से सरकार 14 महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश करने जा रही है। इन विधेयकों को पारित करवाना मात्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है; यह विपक्ष की भी उतनी ही बड़ी भूमिका है कि वह रचनात्मक सुझाव दे, आवश्यक संशोधन का आग्रह करे और राष्ट्रहित सर्वाेपरि रखते हुए संवाद के माध्यम से कानूनों को दिशा दे। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों दो पहिये हैं, एक पहिया चिटक जाए तो रथ आगे नहीं बढ़ता। आज आवश्यकता इस बात की है कि संसद में एक नई लकीर खींची जाए-शालीनता की, संवैधानिक मर्यादाओं की, तर्कसंगत बहस की और राष्ट्रीय हित की। दुनिया भर के लोकतंत्रों में बहसें गरम होती हैं, लेकिन गरिमा नहीं टूटती। भारत में भी यह संस्कृति विकसित होनी चाहिए। विपक्ष का काम सरकार को कठघरे में खड़ा करना है, लेकिन वह हंगामे से नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण तर्कों से हो। सवाल उठाने का अधिकार तभी सार्थक है जब उसके साथ उत्तर सुनने की तैयारी भी हो। पिछले कुछ सत्रों में यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि विपक्ष प्रश्न पूछता है लेकिन उत्तर सुनने का अवसर ही नहीं देता। यह लोकतंत्र की आत्मा का हनन है। संसद सिर्फ आवाज बुलंद करने का मंच नहीं, वह सुनने, समझने और समाधान खोजने का माध्यम है। दुर्भाग्य से, पिछले कुछ वर्षों में यह मंच पक्ष और विपक्ष की राजनीतिक लड़ाइयों का अखाड़ा बनता जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार को भी विपक्ष के सवालों का सम्मानपूर्वक जवाब देना चाहिए, लेकिन विपक्ष को भी यह समझना होगा कि राजनीति निरंतर संघर्ष का नाम नहीं बल्कि संवाद की प्रक्रिया है।
देश की जनता बेहद उम्मीदों के साथ इस सत्र को देख रही है। महंगाई, रोजगार, सुरक्षा, विदेश नीति, सामाजिक सौहार्द, अर्थव्यवस्था, कृषि, शिक्षा और न्याय-ये सभी गंभीर मुद्दे हैं। जनता चाहती है कि उसके चुने हुए प्रतिनिधि इन मुद्दों पर ठोस बहस करें। यदि संसद हंगामों का अखाड़ा बन जाए, तो इन मुद्दों का समाधान कैसे निकलेगा? लोकतंत्र का वास्तविक मूल्य कानून में नहीं बल्कि उसके निर्बाध संचालन में है; यदि संचालन त्रुटिपूर्ण हो जाए, तो कानून भी अर्थहीन हो जाता है। संसद की गरिमा देश की गरिमा है। सांसद केवल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा के वाहक हैं। उनकी भाषा, उनका आचरण और उनकी बहसें भविष्य की राजनीति का मार्ग तय करती हैं। यह चिंता का विषय है कि आज युवा पीढ़ी संसद के व्यवहार को लोकतंत्र का आदर्श नहीं, बल्कि अव्यवस्था का प्रतीक मानने लगी है।
सदन की मर्यादा केवल स्पीकर या सभापति पर निर्भर नहीं, बल्कि सभी सांसदों के संयम एवं शालीनता पर निर्भर है। सभापति का सम्मान करना, नियमों का पालन करना, विषय पर रहने वाली बहस करना और असहमति में भी सभ्यता-शालीनता बनाए रखना-ये संसदीय चरित्र के मूल तत्व हैं। इनका पालन ही संसद की शुचिता को बनाए रख सकता है। यदि सरकार बहुमत के अहंकार में विपक्ष की उपेक्षा करती है तो यह गलत है; लेकिन यदि विपक्ष अपनी रचनात्मक भूमिका छोड़कर केवल अवरोध बन जाए तो यह भी लोकतंत्र के साथ अन्याय है। संसद तभी सफल होगी जब दोनों तरफ का आचरण सकारात्मक हो। इस दृष्टि से शीतकालीन सत्र नई परंपराओं का प्रारंभ बनना ही चाहिए। इस बार के सत्र से यह अपेक्षा है कि यह एक सकारात्मक, शालीन और प्रगति का सत्र बने। यह केवल कानून पारित करने का सत्र न हो; यह संवाद का, सौहार्दपूर्ण वार्ता का, समस्याओं के समाधान का और राष्ट्रीय हित के नए संकल्प का सत्र हो। यदि इस बार पक्ष और विपक्ष मिलकर अनुशासन, मर्यादा और जिम्मेदारी की एक नई लकीर खींच दें, तो देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यह सत्र मील का पत्थर बन सकता है। भारत का लोकतंत्र विश्व के लिए प्रेरणा बन सकता है, बशर्ते संसद स्वयं अपने भीतर अनुशासन, शांति और संवाद की संस्कृति को स्थापित करे। यह सत्र उसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बन सकता है। देश आज यही उम्मीद कर रहा है कि जो सर्वदलीय बैठक शांति और सहमति से हुई, उसी भाव के साथ संसद का संचालन भी हो। यदि यह संभव हुआ तो यह केवल एक सत्र की सफलता नहीं होगी, बल्कि भारत के लोकतंत्र की विजय होगी।

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