पाक में हिन्दू-सिख अल्पसंख्यकों की चिन्ताजनक तस्वीर -ललित गर्ग-
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के हालात पर उठती चिंताएँ कोई नई बात नहीं हैं, पाक में हिन्दू-सिख अल्पसंख्यकों पर किस कदर अत्याचार हो रहे हैं और यह समस्या दिन-ब-दिन गहरी होती गयी है। लेकिन हाल ही के आधिकारिक आँकड़ों ने एक बार फिर इस सच्चाई को निर्मम रूप से सामने ला दिया है कि वहाँ रहने वाले हिंदू और सिख किस हद तक उत्पीड़न और भय के माहौल में जी रहे हैं। पाकिस्तान की संसदीय अल्पसंख्यक समिति ने स्वयं स्वीकार किया है कि वर्ष 1947 में वहाँ 1817 हिंदू मंदिर और गुरुद्वारे विद्यमान थे, लेकिन आज इनकी संख्या सिमटकर मात्र 37 रह गई है। यानी 1285 हिंदू मंदिर और 532 गुरुद्वारों का या तो अस्तित्व मिटा दिया गया, या उन पर जबरन कब्जा कर लिया गया, अथवा उन्हें जानबूझकर खंडहर में बदल दिया गया। यह आँकड़ा सिर्फ किसी धार्मिक स्थल का नहीं, बल्कि एक सभ्यता, एक संस्कृति और एक समुदाय के आत्मसम्मान व अस्तित्व की धीमी हत्या का प्रमाण है। यह पाक की अमानवीयता एवं संकीर्ण साम्प्रदायिक सोच का त्रासद सोच का प्रमाण है।
आधुनिक संसार में किसी भी राष्ट्र की पहचान केवल उसके आर्थिक विकास, सैन्य ताकत या राजनीतिक स्थिरता से नहीं होती, बल्कि इस बात से होती है कि वह अपने नागरिकों-विशेष रूप से अल्पसंख्यकों को कितना सम्मान, सुरक्षा और समान अवसर देता है। धार्मिक स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियादी शर्त है, लेकिन पाक में यही बुनियाद डांवाडोल होती दिखाई देती है। मंदिरों और गुरुद्वारों को ध्वस्त करना, उन्हें खंडहर होने के लिए छोड़ देना, या बहुसंख्यकों द्वारा उन पर कब्जा कर लेना महज भौतिक आक्रमण नहीं, बल्कि भारतीय मूल के समुदायों की संस्कृति, उनकी स्मृतियों और उनकी पहचान पर गहरा प्रहार है। यह भारतीयों के प्रति और विशेषतः हिन्दुओं के प्रति पाक के विकृत एवं संकीर्ण दृष्टिकोण का द्योतक भी है। जब एक समुदाय अपने आराधना-स्थलों से वंचित किया जाता है, तो उसका सामाजिक मनोबल टूटता है, सुरक्षा-बोध क्षीण होता है और उनमें विस्थापन की भावना गहरी पैठ बना लेती है। यही कारण है कि पाकिस्तान बनने के समय वहाँ लगभग 15 प्रतिशत हिंदू-सिख आबादी थी, जो आज घटकर 1.6 प्रतिशत से भी कम रह गई है। जबकि भारत में मुस्लिमों की आबादी करीब 2 प्रतिशत से आज 23-24 प्रतिशत हो गयी है।
धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता की इस प्रवृत्ति ने पाक को न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया है, बल्कि उसकी आंतरिक सामाजिक संरचना को भी खोखला कर दिया है। प्रश्न यह नहीं कि मंदिर गिराए गए या गुरुद्वारों पर कब्जा हुआ, बल्कि यह कि ऐसा करने की मानसिकता क्यों पनपती रही और राज्य की संस्थाएँ इस विनाश को रोकने में क्यों असमर्थ या अनिच्छुक बनी रहीं? जिस समय विश्व के अनेक मुस्लिम देश धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की ओर बढ़ रहे हैं, पाकिस्तान लगातार अपने भीतर कट्टरता, कटुता और धार्मिक बहिष्कार की आग को पोषित करता रहा है। संयुक्त अरब अमीरात में भव्य स्वामीनारायण मंदिर से लेकर सऊदी अरब में भारतीय कर्मचारियों के लिए पूजा स्थल की व्यवस्था तक-यह उदाहरण बताते हैं कि इस्लामिक देशों में भी आधुनिकता और धार्मिक सहिष्णुता का समन्वय संभव है। ओमान, बहरीन, कुवैत, कतर और इंडोनेशिया जैसे देशों में मंदिरों और अन्य अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों का संरक्षण न केवल वहाँ के उदार वातावरण को दर्शाता है, बल्कि यह भी कि वे समझते हैं कि विविधता ही प्रगति का असली आधार है। इंडोनेशिया में सैकड़ों हिंदू-बौद्ध मंदिर संरक्षित हैं। यही कारण है कि हिंदू प्रोफेशनल्स और भारतीय पर्यटक इन देशों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं। इसके ठीक विपरीत पाकिस्तान की उल्टी सोच ने उसे बर्बाद कर दिया है।
इसके उलट पाकिस्तान की सोच न केवल प्रतिगामी है, बल्कि आत्मविनाश की ओर ले जाने वाली भी है। धार्मिक स्थलों का विनाश केवल अतीत का मामला नहीं; आज भी कई स्थानों पर हिंदू और सिख परिवार सामाजिक दबाव, जबरन धर्मांतरण, अपहरण और उत्पीड़न जैसी समस्याओं से जूझते रहते हैं। मंदिरों पर हमला सिर्फ पत्थरों की दीवारें गिराने भर की घटना नहीं, यह उन लोगों की आस्था और अस्तित्व पर चोट है जो पीढ़ियों से इस भूमि का हिस्सा रहे हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने विभाजन के घावों के बावजूद अपनी मिट्टी, अपनी स्मृतियों और अपने इतिहास से नाता नहीं तोड़ा, परंतु बदले में उन्हें जो मिला वह भय, अपमान और अविश्वास का माहौल है। पाकिस्तान की समस्या सिर्फ कट्टरपंथ की नहीं, बल्कि उस संरचनात्मक असमानता की भी है जिसे राज्य ने वर्षों तक प्रश्रय दिया है। यदि शासन-व्यवस्था अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों की रक्षा नहीं कर सकती, यदि पुलिस और प्रशासन अत्याचारों पर कार्रवाई नहीं करते, यदि न्यायपालिका पीड़ितों की सुनवाई नहीं करती, तो स्पष्ट है कि राष्ट्र अपनी आत्मा खो चुका है। दुनिया के किसी भी देश की प्रगति का मापक यह नहीं कि उसकी जीडीपी कितनी है, बल्कि यह कि उसके सबसे कमजोर नागरिक कितने सुरक्षित हैं। आज पाकिस्तान की छवि एक ऐसे राष्ट्र की बन चुकी है, जहाँ अल्पसंख्यकों के जीवन, आस्था और अस्तित्व को निरंतर खतरा है।
पाकिस्तान की सरकारें वर्षों से जिस कट्टरवादी सोच और भारत-विरोधी नज़रिए को अपना आधार बनाती रही हैं, वह न केवल विश्व समुदाय में उसकी छवि को गिरा रहा है, बल्कि स्वयं पाकिस्तान को भी विनाश के कगार पर पहुँचा चुका है। आतंकवाद को रणनीतिक औजार बनाकर और सैन्य खर्चों को अनियंत्रित रूप से बढ़ाकर उसने अपने ही देश की आर्थिक रीढ़ तोड़ दी है। दुनिया जब भारत की धरती से गूंजे “वसुधैव कुटुम्बकम्” के मंत्र को अपनाकर सहयोग, शांति तथा वैश्विक भाईचारे की दिशा में आगे बढ़ रही है, तब पाकिस्तान कट्टरवाद की राजनीति को सहारा देकर मानवता को विभाजित करने में जुटा हुआ है। भारत के प्रति उसकी शत्रुतापूर्ण मानसिकता, सीमापार आतंकवाद का समर्थन और विश्व बिरादरी में हानिकारक कदम आज विश्व शांति के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुके हैं। ऐसी नासमझ नीतियों ने पाकिस्तान को विकास, स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय विश्वास-तीनों से वंचित कर दिया है।
कट्टरवाद को पोषित करने की यह नीति केवल राजनीतिक विफलता नहीं, बल्कि पाकिस्तान की आम जनता के जीवन पर एक भारी बोझ बन चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था बदहाल है, महंगाई आसमान छू रही है, बेरोज़गारी चरम पर है और जनता भुखमरी की दहलीज पर खड़ी है। सबसे अधिक संकट में वहाँ के अल्पसंख्यक समुदाय हैं, जिन पर धार्मिक उन्माद और संकीर्ण सोच की दोहरी मार पड़ रही है-मंदिरों पर हमले, जबरन धर्मांतरण, अपहरण और जनजीवन में भय का वातावरण यह स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान में मानवाधिकार कितने खोखले हैं। आम लोग भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में त्रस्त हैं, परंतु सत्ता अपने लोगों की पीड़ा सुनने के बजाय कट्टरवाद को राजनीतिक सहारा बनाकर स्वयं अपने भविष्य को अंधकार में धकेल रही है। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि पाकिस्तान की वर्तमान सोच न केवल भारत के प्रति एक खतरनाक दृष्टिकोण है, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप की शांति और मानवता के लिए एक गहरा संकट भी है।
यदि पाकिस्तान वास्तव में एक बहुलतावादी और आधुनिक राष्ट्र की श्रेणी में आना चाहता है, तो उसे कट्टरपंथ को प्रश्रय देने के बजाय अपने यहां अल्पसंख्यक समुदायों की रक्षा के लिए ईमानदार कदम उठाने होंगे। आज तो हालत यह है कि पाकिस्तान की छवि न केवल अल्पसंख्यकों, बल्कि इंसानियत के दुश्मन की बनी हुई है। इतिहास गवाह है कि जो राष्ट्र अपने भीतर की विविधता को दबाता है, जो अपने ही नागरिकों की अस्मिता का सम्मान नहीं करता, उसका भविष्य अंधकारमय होता है। पाकिस्तान यदि वास्तव में एक आधुनिक, विकसित और बहुलतावादी राष्ट्र बनना चाहता है, तो उसे तत्काल यह स्वीकार करना होगा कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनके धार्मिक स्थलों का संरक्षण उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। मंदिरों और गुरुद्वारों को बचाना केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व है-एक ऐसा दायित्व, जिसकी उपेक्षा ने पाकिस्तान को दुनिया भर में अविश्वास और आलोचना का पात्र बना दिया है। आवश्यक है कि पाकिस्तान आत्मचिंतन करे, आईना देखे और समझे कि धार्मिक कट्टरता के सहारे राष्ट्र नहीं बनते, टूटते हैं। यदि वह अब भी नहीं सुधरा, तो इतिहास उसे कठोर शब्दों में याद करेगा, और यह कलंक उससे कभी मिटेगा नहीं।

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