पुलिस की पीड़ा : एक संतुलित दृष्टिकोण

केके द्विवेदी प्रबंध संपादक दैनिक उपदेश टाइम्स
समाज की सुरक्षा, कानून व्यवस्था की मर्यादा और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जब भी बात होती है, तो सबसे पहले जिस वर्दी की छवि हमारे सामने आती है, वह पुलिस की होती है। पुलिस हर हाल में ड्यूटी पर रहती है — धूप, बारिश, त्योहार या संकट — जब आम जनता आराम कर रही होती है, तब पुलिस सड़कों पर गश्त कर रही होती है। यही उनकी सबसे बड़ी सकारात्मक पहचान है — कर्तव्यनिष्ठा और सेवा भावना।
सकारात्मक पहलू
पुलिस बल देश की रीढ़ की हड्डी की तरह है। आपदा हो या दंगा, चुनाव हों या वीआईपी सुरक्षा — हर जगह पुलिस का योगदान अनिवार्य है। कई पुलिस कर्मी जान जोखिम में डालकर लोगों की जान बचाते हैं, अपराधियों को पकड़ते हैं और समाज में शांति बनाए रखते हैं। आज आधुनिक तकनीक, सोशल मीडिया मॉनिटरिंग और साइबर क्राइम नियंत्रण में पुलिस की भूमिका और भी अहम हो गई है। कई जगह पुलिस “जन सहयोग” से अपराधों की रोकथाम में सफल हो रही है, जो एक सकारात्मक बदलाव है।
नकारात्मक पहलू
परंतु इस सेवा के पीछे छिपी पीड़ा को समाज अक्सर नहीं देखता। 16-18 घंटे की लगातार ड्यूटी, त्यौहारों पर घर से दूर रहना, संसाधनों की कमी और मानसिक दबाव — ये सब पुलिसकर्मियों के जीवन का हिस्सा हैं। कई बार जनता के साथ व्यवहार को लेकर आलोचना होती है, जो कहीं न कहीं प्रशिक्षण, थकान और असंतुलित कार्य-संस्कृति का परिणाम भी है। ऊपरी दबाव, राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के आरोपों ने भी पुलिस की छवि को धूमिल किया है।
संतुलित निष्कर्ष
पुलिस न तो देवदूत है और न ही खलनायक। वह भी समाज का हिस्सा है — हमारे बीच का इंसान, जो सीमित संसाधनों में अधिकतम सेवा देने की कोशिश करता है। जरूरत है कि उसके अधिकारों, विश्राम, मानसिक स्वास्थ्य और पारदर्शी कार्यप्रणाली पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। समाज यदि पुलिस के साथ संवाद बनाए रखे और पुलिस भी मानवीय दृष्टिकोण से कार्य करे, तो दोनों के बीच विश्वास का पुल मजबूत होगा।
समापन विचार:
पुलिस की वर्दी केवल कानून की नहीं मध्य समाज के विश्वास की रक्षा करती है जब वर्दी पर बोझ बढ़ता है सब न्याय का संतुलन भी डगमगाने लगता है। इसलिए जरूरी है कि पुलिस की पीड़ा को समझा जाए उन्नति केवल आंका जाए।