सस्ती एवं नकारात्मक राजनीति है लेटरल एंट्री का विरोध – ललित गर्ग –
भारतीय नौकरशाही संरचना के प्रभावी एवं परिणामकारी प्रदर्शन को निश्चित रूप से लेटरल एंट्री प्रक्रिया के साथ पूरक किया जा सकता है। लेटरल एंट्री नई बाहरी प्रतिभाओं को लाकर, सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक कल्याण के लिए और अधिक काम एवं प्रभावी काम करने के लिए प्रेरित करके नियमित सरकारी अधिकारियों को पूरक कर सकते हैं, लेकिन लेटरल एंट्री की प्रणाली को अधिक समावेशी, पारदर्शी और असरदार बनाने के लिए एक निश्चित नीति के साथ आगे बढ़ने एवं इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर सकारात्मक रवैया अपनाना देश विकास के लिये जरूरी प्रतीत होता है। इसके लिये वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार ने जो कदम उठाया है, उस पर राजनीति करने करने की बजाय उसमें देशहित को सामने रखा जाना चाहिए। वैश्वीकरण ने शासन के काम को अत्यंत जटिल बना दिया है और यही वजह है कि इस क्षेत्र में विशेषज्ञता और कौशल की मांग पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है। अर्थव्यवस्था और अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में थिंक-टैंकों की आवश्यकता के मद्देनजर तथा अन्य ऐसे विभागों में जहाँ विशिष्ट प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता होती है, लेटरल एंट्री से संयुक्त सचिवों की नियुक्ति की जानी प्रांसगिक एवं उपयोगी कदम है।
संघ लोकसेवा आयोग ने केंद्र सरकार के 24 मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव की भूमिकाओं के लिए प्रतिभाशाली, कार्यक्षम और दक्ष भारतीय नागरिकों से 45 पदों के लिए आवेदन आमंत्रित करके सिविल सेवाओं में लेटरल एंट्री ( सीधी भर्ती ) का स्वागतयोग्य एवं सराहनीय प्रयोग कर रहा है। भले ही इस मुद्दे को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों में विरोध के स्वर देखने को मिल रहे हैं। वैसे भी ऐसे राजनीतिक लोगों एवं दलों की आंखों में किरणें आंज दी जाये तो भी वे यथार्थ को नहीं देख सकते। क्योंकि उन्हें उजाले के नाम से एलर्जी है। विपक्षी दलों विशेषतः कांग्रेस ने एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों के आरक्षण की उपेक्षा के लिए सिविल सेवाओं में लेटरल एंट्री नीति की आलोचना की है। जबकि भारत में सिविल सेवाओं में लेटरल एंट्री का तात्पर्य सरकार के मध्य और वरिष्ठ प्रबंधन स्तर पर पेशेवरों एवं प्रतिभाशाली कर्मियों की भर्ती से है। जिसमें प्रतिभाशाली एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवार भी आवेदन कर सकते हैं। इस पहल का उद्देश्य विशिष्ट कौशल और विशेषज्ञता लाना है जो पारंपरिक नौकरशाही ढांचे में उतनी प्रभावी प्रतीत नहीं हो रही है। कई संभावित और अच्छे प्रशासक हैं जो अपनी कम उम्र के दौरान सरकार द्वारा आयोजित परीक्षाओं में भाग नहीं लेते हैं। लेटरल एंट्री उन्हें शासन तंत्र का हिस्सा बनने और राष्ट्र निर्माण में योगदान करने का अवसर प्रदान करता है। नया भारत, सशक्त भारत, विकसित भारत निर्मित करने में इन प्रतिभाओं का उपयोग होना राष्ट्र में एक नयी रोशनी का अवतरण हो सकता है।
देखा यह गया है कि जब भी ब्यूरोक्रेसी में सुधार की चर्चा होती है, तो इसका विरोध होने लगता है, जो विरोधाभासी एवं विडम्बनापूर्ण होने के साथ-साथ संकीर्ण राजनीति का द्योतक हैं। कांग्रेस और कुछ अन्य दलों की ओर से जिस तरह लेटरल एंट्री पर आपत्ति जताई जा रही है, वह यही बताती है कि नकारात्मक राजनीति की जा रही है। यह आश्चर्जनक है कि ऐसे देश-विकास एवं राष्ट्र-निर्माण के निर्णयों एवं मुद्दों का विरोध करने की राजनीति की कमान राहुल गांधी अपने हाथ में लेते हुए दिख रहे हैं। कम से कम उन्हें तो इससे बचना चाहिए, क्योंकि राहुल गांधी को यह नहीं भूलना चाहिए कि वित्त सचिव के रूप में मनमोहन सिंह की नियुक्ति लेटरल एंट्री ही थी और वह भी बिना किसी निर्धारित प्रक्रिया के। भारत में लेटरल एंट्री कोई नई बात नहीं है। पहले भी भारत में इसका फायदा उठाया जा चुका है। मुख्य आर्थिक सलाहकार की नियुक्ति लेटरल एंट्री से ही की जाती रही है। पूर्व आर्थिक सलाहकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया, आधार की नींव रखने वाले नंदन नीलेकणि जैसी बड़ी हस्तियां इसी के जरिए प्रशासन में शामिल हुईं। यह व्यवस्था तदर्थ आधार पर की गई है, यह संस्थागत नहीं है। लेटरल एंट्री की व्यवस्था सिर्फ भारत में ही है। ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड और बेल्जियम जैसे पश्चिमी देशों में पहले से ही सभी क्षेत्रों के योग्य कर्मियों के लिए विशिष्ट सरकारी पदों को खोल दिया है। यह नौकरी के लिए बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित करने का एक बेहतर तरीका पाया गया है।
स्पष्ट है कि कांग्रेस एक बार फिर अपने शासन के समय सुधार की दिशा में उठाए गए कदम का विरोध कर रही है। इसके विपरीत वर्तमान सरकार एक तय प्रक्रिया के तहत लेटरल एंट्री कर रही है। इसी कारण इसकी जिम्मेदारी संघ लोक सेवा आयोग को दी गई है। कांग्रेस एवं विपक्षी दलों को यह भी पता होना चाहिए कि लेटरल एंट्री के जरिये जो नियुक्तियां की जा रही हैं, वे अस्थायी हैं। ये नियुक्तियां केवल तीन वर्ष के लिए हैं और उनमें अधिकतम दो वर्ष की वृद्धि की जा सकती है। प्रशासन में सुधार की हर पहल को आरक्षण से जोड़ना केवल यही नहीं बताता कि वोट बैंक की सस्ती राजनीति अनियंत्रित हो रही है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि आरक्षण को हर मर्ज की दवा मान लिया गया है। यह ठीक नहीं कि होनी को अनहोनी बनाने का प्रयत्न हो।
वैसे लेटरल एंट्री राष्ट्रहित का मुद्दा है। जिस पर 2002 की संविधान समीक्षा आयोग ने भी सिफ़ारिश वकालत की। मनमोहन सिंह के समय 2005 की द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर लेटरल एंट्री के लिए एक संस्थागत और पारदर्शी प्रक्रिया की सिफारिश की। स्पष्ट है कि कांग्रेस एक बार फिर अपने शासन के समय सुधार की दिशा में उठाए गए कदम का विरोध कर रही है। नीति आयोग ने अपने तीन-वर्षीय कार्य एजेंडा में लेटरल एंट्री के विचार का समर्थन किया। इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि लेटरल एंट्री से विशेष ज्ञान और प्रशासनिक कौशल को शामिल करके शासन में सुधार की क्षमता को विकसित किया जा सकता है। शासन में सचिवों का क्षेत्रीय समूह ने भी लेटरल एंट्री प्रणाली का समर्थन किया। यह तर्क दिया गया कि लेटरल एंट्री प्रासंगिक विशेषज्ञता वाले पेशेवरों को पेश करके सार्वजनिक सेवाओं की प्रभावशीलता को बढ़ाया सकता है और उसे उच्च परिणामकारी बनाया जा सकता है।
विरोध के लिये विरोध करने की सोच एवं उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक नीति के द्वारा किसी का भी हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होती। राहुल गांधी और कुछ अन्य विपक्षी नेताओं की ओर से यह जो माहौल बनाया जा रहा है कि लेटरल एंट्री के जरिये विभिन्न मंत्रालयों में विशेषज्ञों की नियुक्तियों से आरक्षित वर्गों के हितों को नुकसान होगा, उसका इसलिए कोई औचित्य नहीं, क्योंकि यह कहीं नहीं कहा गया है कि इन वर्गों के लोग आवेदन नहीं कर सकते। राहुल गांधी किस तरह अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए एक झूठा विमर्श खड़ा रहे हैं, इसका पता इससे भी चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय स्वयं उन्होंने पूर्व सैन्य अधिकारियों को लेटरल एंट्री के जरिये सिविल सेवाओं में शामिल करने का वादा किया था। लेटरल एंट्री का उद्देश्य है कि जहां कहीं भी कुशल और जानकार लोग हों, उनकी प्रशासन के संचालन में सेवाएं ली जाएं, ताकि सरकारी नीतियों और योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्यूरोक्रेसी में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करने से पहले इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की भी आवश्यकता है।
राजनीतिक रूप से मजबूत और स्थिर नरेंद्र मोदी की सरकार ने कंपनियों के दिवालिया होने से जुड़े विवादों के निपटारे, जीएसटी लागू करने, नोटबंदी और कृषि क्षेत्र जैसे कई अहम सुधार किए हैं। मोदी सरकार ने श्रम कानूनों को भी सरल बनाया है। लेकिन, इन सुधारों को लेकर उन्हें उस वक्त के मुकाबले कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है, जब पहले पहल इन सुधारों का प्रस्ताव रखा गया था। लेटरल एंट्री जैसे मुद्दे पर भारी विरोध के बादल मंडरा सकते हैं, इसके लिये भाजपा और साथ ही मोदी सरकार को इसके प्रति सतर्क रहना होगा कि विपक्षी दल उसके खिलाफ झूठा नरेटिव खड़ा कर जनता को गुमराह न करने पाएं