जो दल सत्ता में होता उसके हाथ में सारा पावर होता है इसलिए चुनाव में जनता निष्पक्ष चुनाव नही कर पाती,बिहार चुनाव इसका उदाहरण है
लेखक – चंद्रकांत सी पूजारी
गुजरात
बिहार में चुनाव हो रहे है और चुनाव में हो रहे चुनाव प्रचार को देखकर लगता है की चुनाव प्रचार की सारी पकड़ सत्तारूढ पार्टी को है।विपक्ष पुरे प्रयास के बाद भी कमजोर दिखाई दे रहा है।
लोकतंत्र में जनता को सर्वोच्च माना गया है। संविधान ने जनता को यह अधिकार दिया है कि वह अपने प्रतिनिधि चुने और शासन की दिशा तय करे। परंतु वास्तविकता इससे कुछ भिन्न दिखाई देती है। जब कोई दल सत्ता में आता है, तो उसके हाथों में इतनी शक्ति और संसाधन केंद्रित हो जाते हैं कि वह चुनाव की दिशा और परिणाम दोनों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
सत्ता में बैठा दल न केवल प्रशासनिक मशीनरी का उपयोग करता है, बल्कि मीडिया, प्रचार और सरकारी योजनाओं के माध्यम से जनता के मनोविज्ञान पर भी नियंत्रण स्थापित कर लेता है। सरकारी विज्ञापनों में विकास की बड़ी-बड़ी बातें दिखाकर वह अपने पक्ष में माहौल बनाता है। जनता, जो रोज़मर्रा की परेशानियों में उलझी रहती है, उन्हीं प्रचारों और योजनाओं के प्रभाव में आकर यह मान बैठती है कि सत्ताधारी दल ही देश या राज्य की उन्नति का असली वाहक है।
चुनाव के समय सत्ता में बैठा दल सरकारी संसाधनों का परोक्ष रूप से उपयोग कर अपनी पकड़ मजबूत करता है। विपक्ष के पास वह साधन और पहुँच नहीं होती, जो सरकार के पास होती है। परिणामस्वरूप जनता को वास्तविक विकल्प नहीं मिल पाता। लोकतंत्र का वह स्वरूप, जिसमें जनता स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सके, धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगता है।
लोकतंत्र में जनता को सर्वोच्च माना गया है। संविधान ने जनता को यह अधिकार दिया है कि वह अपने प्रतिनिधि चुने और शासन की दिशा तय करे। परंतु वास्तविकता इससे कुछ भिन्न दिखाई देती है। जब कोई दल सत्ता में आता है, तो उसके हाथों में इतनी शक्ति और संसाधन केंद्रित हो जाते हैं कि वह चुनाव की दिशा और परिणाम दोनों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
चुनाव के समय सत्ता में बैठा दल सरकारी संसाधनों का परोक्ष रूप से उपयोग कर अपनी पकड़ मजबूत करता है। विपक्ष के पास वह साधन और पहुँच नहीं होती, जो सरकार के पास होती है। परिणामस्वरूप जनता को वास्तविक विकल्प नहीं मिल पाता। लोकतंत्र का वह स्वरूप, जिसमें जनता स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सके, धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगता है।
प्रशासनिक मशीनरी, वित्तीय संसाधन, और प्रचार के साधनों पर नियंत्रण होता है। इस कारण कई बार जनता की स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावी इच्छा प्रभावित होती है।
1. प्रशासनिक प्रभाव: सत्ता दल के पास पुलिस, प्रशासन और सरकारी तंत्र पर अप्रत्यक्ष पकड़ होती है, जिससे चुनावी माहौल प्रभावित हो सकता है।
2. वित्तीय ताकत: सत्ता में रहकर सरकारी योजनाओं और विज्ञापनों के माध्यम से जनता तक अपनी छवि चमकाना आसान हो जाता है।
3. मीडिया पर पकड़: सत्ताधारी दल मीडिया स्पेस में अधिक उपस्थित रहता है, जिससे विपक्ष की आवाज़ कमजोर पड़ जाती है।
4. जनता की धारणा: कई बार जनता सोचती है कि “सत्ता वाले ही फिर लौटेंगे”, जिससे विरोध में वोट देने का उत्साह घटता है।
फिर भी, जागरूक मतदाता अगर समझदारी से सोचकर वोट करें — व्यक्ति, पार्टी या वादों से ज़्यादा नीति, नीयत और प्रदर्शन को देखें — तो यह प्रभाव कम किया जा सकता है।
वास्तव में लोकतंत्र की शक्ति तभी सार्थक होगी जब सत्ता और संसाधनों पर नियंत्रण के लिए पारदर्शी व्यवस्था बने। चुनाव आयोग को और अधिक स्वतंत्र बनाया जाए, सरकारी प्रचार और योजना घोषणाओं पर आचार संहिता लागू हो, और मीडिया को स्वतंत्र रूप से अपनी भूमिका निभाने दी जाए। जब तक यह नहीं होगा, तब तक जनता की पसंद वास्तविक नहीं, बल्कि परिस्थितियों से प्रभावित रहेगी।
जनता को भी अपनी भूमिका को समझना होगा। केवल नारों, विज्ञापनों या तात्कालिक लाभों के आधार पर निर्णय लेना लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है। जनता जितनी सजग और सूचित होगी, सत्ता का केंद्रीकरण उतना ही कमजोर होगा।
निष्कर्षतः, सत्ताधारी दल के पास भले ही पावर हो, पर लोकतंत्र की असली शक्ति जनता में ही है। जरूरत है कि जनता इस शक्ति को पहचानकर विवेकपूर्ण मतदान करे — तभी सच्चे अर्थों में लोकतंत्र जीवंत रहेगा।

